बगावत हिन्दुत्व के बजाय ओबीसी मुद्दे पर क्यों नहीं?
(पूर्वार्ध और उत्तरार्ध एकसाथ पढीए)
- प्रोफे. श्रावण देवरे
2019 में अजीत पवार के साथ भोर में किया गया शपथविधी का षड्यंत्र फेल होने के बाद आगे के नये षड्यंत्र की जिम्मेदारी फडणवीस ने अजीत पवार के ऊपर ही डाली। महाविकास आघाड़ी सरकार के लिए एक से डेढ़ वर्ष या ज्यादा से ज्यादा दो वर्ष में फडणवीस और अजीत पवार दोनों ऐसी परिस्थिति का निर्माण करें कि जिससे शिवसेना विधायक अपने आप फडणवीस की शरण में जाना चाहिए। बाहर से फडणवीस ने ईडी सीबीआई का दबाव बनाकर ‘पुल’ किया और मविआ सरकार के अंदर से अजीत पवार ने शिवसेना विधायकों के साथ अपमानजनक व्यवहार करके ‘पुश’ किया इस प्रकार का यह षड्यंत्रकारी एजेंडा था। अजीत पवार जाति से मराठा सामंतशाह होने के कारण शिवसेना विधायकों का अपमान करने में कहीं भी कम नहीं पड़ेंगे इसका भरोसा पेशवा फडणवीस को था।
दूसरा मुद्दा उद्धव ठाकरे का है - उद्धव ठाकरे के ढीलापन और बीमारी की वजह से जाने अंजाने इस षड्यंत्र को सपोर्ट ही मिला। उद्धव ठाकरे ढीलेपन की वजह से मुख्यमंत्री रहते हुए भी अजीत पवार के नाक में नकेल नहीं डाल सके और बीमारी की वजह से अपने विधायकों को अटेंड नहीं कर सके।
तीसरा मुद्दा - कम उम्र में योग्यता न रहते हुए भी ज्यादा कुछ मिल जाता है, तो आदमी बिगड़ जाता है और अपने ही पैरों पर पत्थर मार लेता है। ऐसा ही कुछ आदित्य ठाकरे के साथ हुआ। अपने से सीनियर और पार्टी के लिए संघर्ष करनेवाले विधायकों के कार्यक्षेत्र में गलत तरीके से हस्तक्षेप करना यह किसी को भी पसंद नहीं आयेगा इससे विधायकों का इगो जागृत हुआ और उस पर चोट पहुंची! पुत्र प्रेम में अंधे धृतराष्ट्र ने जो किया वही बीमार उद्धव ठाकरे ने किया।
चौथा एक और मुद्दा यह है कि महाविकास आघाड़ी सरकार की स्थापना में अनंत अड़चनें आई थीं। कांग्रेस नेतृत्व इजाजत ही नहीं दे रहा था। भाजपाई राज्यपाल बाधा खड़ी कर रहे थे। उस पर फिर से अजीत पवार भोर में ही उठकर चल दिए, उनको वापस लाने के लिए बहुत कसरत करनी पड़ी। इन सब बाधाओं को पार करते हुए किसी तरह महाविकास आघाड़ी सरकार स्थापित हुई और 'सत्ता के लिए कुछ भी' यह ब्रिदवाक्य वाली कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसैनिक विधायकों को सत्तापद मिला। उद्धव ठाकरे को किसी भी हाल में भाजपा नहीं चाहिए थी। कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस एवं शिवसेना तीनों पार्टी प्रमुखों को ‘केवल भाजपा नहीं चाहिए’ इसी एक मुद्देपर मविआ सरकार टिका कर रखना, यह समय की जरूरत लगती थी। इस सरकार के लिए खतरा पहुंचाने वाला मविआ सरकार में एक ही व्यक्ति था, सिर्फ अजीत पवार, उन्होंने यह सिद्ध भी करके दिखाया था। "नंगे को खुदा डरे" इस आधार पर मविआ सरकार में अजीत पवार का महत्व बढ़ गया। वित्तमंत्री और उपमुख्यमंत्री ये दोनों महत्वपूर्ण पद इसीलिए उनको मिले। अजीत पवार नाराज हुए तो वे किसी दिन अचानक भोर में उठकर फडणवीस के द्वार पर जा बैठेंगे, इसी एकमात्र दहशत के कारण मविआ के विधायक मुंह बंद करके मुक्के की मार सहन कर रहे थे। मुक्के की मार सहनशक्ति के बाहर जाने के बाद ही बगावत उजागर हुई।
महाभारत में पितामह भीष्म मजबूरी में कौरवों के पलड़े में वजन डाल रहे थे वह मजबूरी क्या थी? भीष्म कहते हैं "अर्थस्य पुरुष: दास:" मनुष्य अर्थ का गुलाम है। भीष्म के ऐशोआराम और रोजी रोटी की व्यवस्था दुर्योधन की छावनी से होती थी। अजीत पवार ने अपना सामंतवादी डंडा केवल विधायकों के साथ अपमानजनक व्यवहार तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने विधायकों की आर्थिक डोर ही पकड़कर रखा। चुनाव क्षेत्रों के विकास के लिए भरपूर निधि वित्तमंत्रालय की तरफ से नहीं मिली तो विकास के काम नहीं होंगे और जनता को यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि क्या काम किया। चुनाव क्षेत्रों में विकास का जो काम कराना होता है वह ठेकेदारों के माध्यम से होता है ये ठेकेदार आर्थिक चेन की महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं। वे कार्यकर्ताओं को पोसते हैं और चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, सभा सम्मेलनों में ट्रकों में भरकर भीड़ जुटाने वाले यही ठेकेदार होते हैं। इसके अतिरिक्त इन्हीं विकास कार्यों के पर्सेंटेज कमीशन की कमाई विधायकों को करोड़पति बनाती रहती है। अजीत पवार ने इस आर्थिक चेन का ही गला घोंट दिया था। बागी विधायकों के चुनाव क्षेत्रों में एकनाथ शिंदे के अभिनंदन का फ्लेक्स बोर्ड लगाने वाले यही ठेकेदार थे।
अब तक की विवेचना से यह सिद्ध हो चुका है कि इस बगावत के पीछे हितसंबधों में आने वाली बाधा है। ये हितसंबंध जैसे आर्थिक हो सकते हैं वैसे ही मान अपमान
(इगो) के मानसिक भी हो सकते हैं। फिर यदि मूल कारण आर्थिक व मानसिक है तो इसमें हिन्दुत्व का संबंध कहां से आया? ढाई वर्ष पहले जब मविआ सरकार स्थापित हुई तब हिन्दुत्व की याद क्यों नहीं आई? हिन्दुत्व की याद आने के लिए ढाई वर्ष लगते हैं क्या? ढाई साल जिस सत्ता पद पर ये बागी थे वह सत्ता बिना हिन्दुत्व के ही थी ना? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर मजबूत होता है कि -" अर्थस्य पुरुष: दास:"। वापस वही प्रश्न खड़ा होता है कि - हिन्दुत्व का मुद्दा आया कैसे?
किसी भी घर में मतभेद व कलह होता है तो घर के प्रमुख को ताबड़तोड़ दखल देकर उस अंतर्विरोध को लोकतांत्रिक मार्ग से सुलझाना चाहिए, यह महामानव बुद्ध के भिक्खु संघ का मुख्य सूत्र था। इसलिए बुद्ध के जीवित रहते अनेक प्रसंग आने के बाद भी भिक्खु संघ में कभी फूट नहीं पड़ी। उस समय बुद्ध के सामने प्राचीन गणसमाज के स्त्रीसत्ताक लोकतंत्र का आदर्श था। आज के घोर पूंजीवादी लोकतांत्रिक युग में सिर्फ घरानेशाही व तानाशाही का आदर्श रखा जाता है इसलिए बगावत होना, फूट पड़ना यह नित्य का ही हो गया है। किसी भी घर में असंतोष होने पर बागी निर्मित होते हैं किन्तु ये बागी अपनी बगावत जाहिर करने के पहले घर के बाहर सुरक्षितता की तलाश करते हैं। सुरक्षित मुद्दा न रहने पर कोई भी घर छोड़ने की हिम्मत नहीं करता।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य के छल से ऊबकर उसके ब्राह्मणी धर्म को तभी लात मारी जब उस समय जैन धर्म का संरक्षण मिलना संभव हुआ। सम्राट अशोक ने ब्राह्मणी धर्म को लात मारकर बौद्ध धम्म स्वीकार किया क्योंकि जिस प्रजा पर वह राज्य कर रहे थे वह प्रजा बौद्धमय हो चुकी थी। संत ज्ञानेश्वर ने वैदिक ब्राह्मणी धर्म को नकारने के बाद नवनाथ धर्म का आश्रय लिया, क्योंकि नवनाथ धर्म उस समय अब्राह्मणी धर्म था व भारत भर में लोकप्रिय था। ब्राह्मणों से जान बचाने के लिए ज्ञानेश्वर ने नाथ धर्म में सुरक्षितता तलाश की। छत्रपति शिवाजी महाराज ने ब्राह्मणों के छल प्रपंच से ऊबकर ब्राह्मणी वैदिक धर्म का त्याग किया और अब्राह्मणी शाक्त धर्म स्वीकार किया, क्योंकि उस समय बहुजनोमे शाक्त धर्म लोकप्रिय था, शिवराय ने उसमें सुरक्षितता तलाशी।
महाराष्ट्र के बागियों के सुरक्षित मार्ग का शोध व बोध कल लेख के उत्तरार्ध में पढ़ें!
तब तक जय ज्योति,जय भीम, सत्य की जय हो!.....
-उत्तरार्ध-
भारतीय इतिहास में आज तक जितनी बगावतें हुईं सभी ब्राह्मणों के छल प्रपंच से तंग आकर हुईं।ये बगावतें समता के लिए चलने वाले संघर्ष के महामार्ग के दीपस्तंभ हैं।सन् 90-91 तक होने वाली बगावतें जातिव्यवस्था के विरुद्ध असंतोष के कारण हुईं। अभी महाराष्ट्र में 2022 में होने वाली बगावत वैदिक ब्राह्मणों के हिन्दुत्व के लिए हो रही है तो इसका क्या अर्थ निकाला जाय? जातीय अन्याय अत्याचार खत्म हो गए हैं क्या? दलित, आदिवासी व ओबीसी ये सभी सुखी संपन्न व प्रतिष्ठित हो गए हैं क्या? आज आरक्षण के लिए संपूर्ण देश में आक्रोश शुरू होते हुए और यह अन्याय हिन्दुत्व वादियों की तरफ से होते हुए भी राजनैतिक बगावत ओबीसी मुद्दे पर होने के बजाय हिन्दुत्व के मुद्दे पर क्यों हो रही है? उत्तरार्ध में इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ते हैं।
वीपी सिंह ने 1988-89 में कांग्रेस छोड़ी। उस समय भारतीय राजनीति पर समाजवादी व कम्युनिस्ट आंदोलन का प्रभाव था। उसी प्रकार मंडल आयोग का आंदोलन भी जोर शोर से चल रहा था। उस समय वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ते समय समाजवादी व कम्युनिस्टों के प्रभाव में आए कामगार व ओबीसी आंदोलन में अपनी सुरक्षितता तलाशी। इसी आंदोलन की नींव पर उन्होंने जनता दल की स्थापना की और कांग्रेस - भाजपा को परास्त करके केन्द्र में सरकार बनाई। जनता दल के कामगार वर्ग का वोट बैंक मजबूत करने के लिए उन्होंने अनेक कामगार कानून बनाए। जनता दल का दलित वोट बैंक मजबूत करने के लिए उन्होंने एट्रोसिटी एक्ट जैसे कानून भी बनाए। बाबा साहेब अंबेडकर की प्रतिमा संसद भवन में लगवाई और अंबेडकर जयंती की छुट्टी घोषित की। यह सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा था। ओबीसी वोटबैंक मजबूत करने के लिए उन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने की शुरुआत की। परंतु ब्राह्मणी छावनी की भाजपा द्वारा राममंदिर के सांस्कृतिक आंदोलन शुरू करने के कारण ओबीसी वोटबैंक और हिन्दुत्व के वोटबैंक में घमासान युद्ध शुरू हो गया।
राममंदिर के सांस्कृतिक आंदोलन युद्ध की लहर में कामगार वर्गीय आंदोलन जड़ ही नहीं पकड़ पाया क्योंकि कम्युनिस्टों ने कभी भी सांस्कृतिक व जातीय मुद्दों को गंभीरता से लिया ही नहीं और दलित आंदोलन का भी प्रभाव नहीं रहा क्योंकि उन्होंने भी इस सांस्कृतिक मुद्दे की अनदेखी की। इस युद्ध में हिन्दू वोट बैंक तैयार होने के कारण भाजपा कुछ हद तक यशस्वी हुई। किंतु जाति जागृति के कारण ओबीसी वोटबैंक भी गतिमान होते हुए राजनीतिक जड़ें पकड़ने लगा। बिहार में लालू यादव की पार्टी व उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह व कांशीराम जी की पार्टी ओबीसी वोटबैंक के कारण सत्ता में आकर ब्राह्मणी छावनी के हिन्दुत्व को मात दे रहे थे। ओबीसी वोटबैंक के दबाव में आकर कुछ राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्री उपमुख्यमंत्री बनाना पड़ा था।
इसी 91-92 के समय में छगन भुजबल साहब ने शिवसेना से पहली बगावत की। भुजबलसाहब ने ब्राह्मणी शिवसेना को लात मारते समय ओबीसी मुद्दे का इस्तेमाल किया और कांग्रेस में जाकर अपनी सुरक्षितता तलाशी। 1991 में छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ते हुए जो सुरक्षितता ओबीसी आंदोलन में तलाशी वह ओबीसी आंदोलन की सुरक्षितता आज 2022 में शिवसेना टूटने पर कहां गई ? आज शिवसेना छोड़ने वाले बागी विधायक ओबीसी के बजाय हिन्दुत्व की बात क्यों कर रहे हैं?
महाराष्ट्र में आज अनेकों ओबीसी संगठन हैं। ओबीसी का राजनीतिक आरक्षण बचाने के लिए ये संगठन आंदोलन भी कर रहे हैं। ओबीसी वर्ग में जागृति भी बढ़ रही है। ऐसा होते हुए भी ओबीसी आंदोलन का प्रभाव राजनीति पर क्यों नहीं पड़ता? इसकी खोज करके और उसे संज्ञान में लेकर आगे काम किया जाय तभी महाराष्ट्र में ओबीसी राजनीति प्रभावी होगी और राजनैतिक दल - सत्ताधारी ओबीसी मुद्दे को गंभीरता से लेंगे।
1990-91 तक का ओबीसी आंदोलन गली मुहल्ले के छोटे मोटे प्रमाणिक कार्यकर्ताओं ने खड़ा किया था । इसलिए उसका राजनीतिक प्रभाव वीपी सिंह को खींचकर लाने जितना प्रभावी था। इसी प्रभावी आंदोलन का उपयोग करते हुए छगन भुजबल ने इसमें सुरक्षितता तलाशी और शिवसेना से बाहर छलांग मारना आसान हुआ। किंतु भुजबलसाहब की यह छलांग शिवसेना की ब्राह्मणी आग से निकलकर कांग्रेस की ब्राह्मणी आग में कूदने जैसा था। इसलिए उनकी छलांग से ओबीसी आंदोलन मजबूत होने के बजाय कांग्रेसी मराठा - ब्राह्मणों की राजनीति मजबूत हुई। ओबीसी नेता के कारण मजबूत हुए इन ब्राह्मण - मराठा राजनीतिज्ञों ने सत्ता का उपयोग करते हुए ओबीसी आंदोलन का पैर काटना शुरू किया। उसके बाद सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपनी अपनी पार्टियों मे दलाल ओबीसी नेता व कार्यकर्ता तैयार किया।
73वां व 74वां संविधान संशोधन करके 1993-94 में आया राजनीतिक आरक्षण का पंचायत राज कानून ऐसे ही दलित - ओबीसी दलालों का निर्माण करने के लिए ही था। ओबीसी आंदोलन का इस्तेमाल सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपनी राजनीति मजबूत करने के लिए किया।
महाराष्ट्र में आज जो ओबीसी संगठन खुद को स्वतंत्र व सामाजिक बताते हैं वे सबके सब किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से बंधे हुए है। चुनाव आने पर इन संगठनों के नेता व कार्यकर्ता किसी न किसी प्रस्थापित पार्टी के लिए काम करते हैं और उन्हें चुनकर लाने में अहम भूमिका निभाते हैं। बहुत सारे ओबीसी संगठन आज भी मराठों के दबाव व प्रभाव में चलते हैं। इन दलालों के कारण ही ओबीसी आंदोलन रहते हुए भी न रहने जैसा हो गया है। विधान परिषद की विधायकी पर नजर गड़ाए ये ओबीसी दलाल नेता नगरसेवक का टिकट मिलने पर भी खुश हो जाते हैं। ऐसे बहुत सारे ओबीसी नेता,विचारक व कार्यकर्ता बाजार में सस्ते में मिल जाने पर 52% ओबीसी वोटबैंक को कौन पूछता है? ऐसे प्रभावहीन ओबीसी आंदोलन के मुद्दे का इस्तेमाल कोई राजनीतिज्ञ बगावत करते समय क्यों करेगा?
इसके उलट 1985 से शुरू हुए राममंदिर के सांस्कृतिक आंदोलन से ब्राह्मणी छावनी मजबूत होती गई, इस ब्राह्मणी छावनी का राजनीतिक प्रभाव भी बढ़ता गया और उसमें से हिन्दू वोट बैंक तैयार होता गया। हिन्दुत्व का वोट बैंक तैयार करने के लिए असंख्य संघ कार्यकर्ता रात दिन परिश्रम कर रहे थे। ये कार्यकर्ता किसी भी क्षेत्र में गए तो वे उस क्षेत्र का इस्तेमाल हिन्दुत्व के लिए ही कर रहे थे। ये संघ कार्यकर्ता मीडिया क्षेत्र में गए तो वहां वे हिन्दू -मुस्लिम दंगे कराने के लिए उस मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। मीडिया में काम करने वाले ओबीसी कार्यकर्ता कभी भी ओबीसी मुद्दे पर मीडिया में चर्चा नहीं होने देते। संघ कार्यकर्ता एकाध राजनीतिक पार्टी में गए तो वे उस पार्टी का इस्तेमाल हिन्दुत्व वोटबैंक मजबूत करने के लिए करते हैं। ओबीसी-दलित कार्यकर्ता सहजतासे ब्राह्मण-मराठा के दलाल बन जाते है, मगर संघी-ब्राह्मण कार्यकर्ता और नेता कभी भी दलाल नही बनते। ओबीसी कार्यकर्ता किसी पार्टी में गए तो वे उस पार्टी के दलाल बनते हैं और प्रस्थापितों की ओबीसी विरोधी राजनीति को मजबूत करते हैं।
जाति के आगे जाकर हिन्दू वोट बैंक तो तैयार हो गया, किंतु जाति को दरकिनार करके कोई भी कार्यकर्ता ओबीसी बनने को तैयार नहीं है। आज ओबीसी नाम से जो संगठन चल रहे हैं वे सभी किसी एक विशेष जाति के संगठन हैं। संगठन के नाम में 'समता' शब्द रहता है लेकिन प्रत्यक्ष में उस संगठन में सभी माली रहते हैं। इस संगठन के माध्यम से आगे चलकर जो विधायक सांसद बनते हैं वे भी माली जाति के ही होते हैं। ओबीसी महामंडल व विद्यापीठ के छोटे मोटे पद तक भी नाई धोबी आदि को पहुंचने नहीं देते। इसी प्रकार कुणबी, तेली, धनगर धोबी आदि जातियों के नेता भी अपनी अपनी जातियों का ओबीसी संगठन बनाया है। ऐसे एकजातीय ओबीसी संगठनों का राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
90-91 तक की चार पीढ़ियों ने बड़ा कष्ट उठाकर जो ओबीसी वोटबैंक तैयार किया था वह आंदोलन 90-91 के बाद के इन दलाल नेताओं व विचारकों ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए खत्म कर दिया। इसके ठीक उल्टा हिंदुत्व के ब्राह्मणी वोटबैंक ने मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री वगैरह जैसे बड़े पद भी ब्राह्मणेतर जातियों को दिया और हिन्दुत्व का वोटबैंक सर्वजातीय बनाया गया। इस प्रकार ओबीसी वोटबैंक को परास्त करते करते हिन्दुत्व का वोटबैंक आज देश पर राज कर रहा है इसीलिए देश के अधिकतर राजनीतिज्ञ अपनी सुरक्षितता हिन्दुत्व में तलाशते हैं। कांग्रेस व राष्ट्र वादी कांग्रेस जैसी अपेक्षाकृत सेकुलर रही पार्टियों के साथ सत्ता का उपभोग करते हुए भी शिवसेना को अपना हिन्दुत्व वोटबैंक संभालने के लिए अयोध्या की यात्रा करनी पड़ती है। इतना जबर्दस्त राजनीतिक प्रभाव हिन्दुत्व वोटबैंक का है। ऐसी परिस्थिति में शिवसेना के बागी विधायक अपनी सुरक्षितता हिन्दू वोटबैंक में ही तलाशेंगे और भाजपा के ही शरण में जायेंगे।
यदि महाराष्ट्र में ओबीसी आंदोलन मजबूत रहा होता और ओबीसी की एकाध प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी अस्तित्व में होती तो शिवसेना के इन सारे बागियों ने हिन्दुत्व के मुद्दे का इस्तेमाल न करते हुए ओबीसी आरक्षण के मुद्दे का इस्तेमाल किया होता। और ओबीसी आंदोलन अधिक मजबूत हुआ होता। बिहार में नीतीश कुमार भाजपा के साथ में सत्ता में हैं, फिर भी नितीश कुमार ओबीसी आंदोलन की ही राजनीति करते हैं, क्योंकि बिहार में ओबीसी का वोटबैंक व ओबीसी की स्वाभिमानी पार्टी (राजद) प्रभावशाली है। इसीलिए नितीश कुमार विधानसभा में ओबीसी जनगणना का प्रस्ताव रखते हैं और भाजपा को अपना हिन्दुत्व साइड में रखकर ओबीसी जनगणना को समर्थन करना ही पड़ता है। उसी प्रकार ओबीसी की प्रभावी राजनीति उत्तर प्रदेश में भी है।
तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश की तरह महाराष्ट्र में ओबीसी वोटबैंक मजबूत करना है तो ओबीसी की स्वतंत्र स्वाभिमानी पार्टी स्थापित करने की जरूरत है। हमने इसकी शुरुआत की है। "ओबीसी राजकीय आघाड़ी" *नाम की पार्टी स्थापित करके ओबीसी की मजबूत राजनीति की शुरुआत हमने की है। अपने अपने ओबीसी संगठनों का अस्तित्व कायम रखते हुए भी इस राजनीतिक मोर्चे में शामिल हुआ जा सकता है। महाराष्ट्र के प्रमाणिक कार्यकर्ता पार्टी में आकर ओबीसी वोटबैंक को मजबूत करें ऐसा आह्वान करता हूं।
जय ज्योति,जय भीम! सत्य की जय हो!
लेखक - प्रो. श्रावण देवरे
मोबाईल- 88 301 27 270
मराठी से हिंदी अनुवाद
चन्द्र भान पाल