सुप्रिम कोर्ट ने लाया ओबीसी के भविष्य पर खतरा!
- प्रोफे. श्रावण देवरे
(पूर्वार्ध और उत्तरार्ध एक साथ पढ़ें)
सुप्रिम कोर्ट ने महाराष्ट्राके पॉलिटीकल रिझर्वेशन को मंजूरी दे दी है। यश को पन्द्रह बाप मिल जाते हैं किन्तु अपयश को कोई वारिस नहीं मिलता। इस मुहावरे की तर्ज पर पिछले कई दिनों से एक दूसरे के अभिनंदन की बाढ़ आई हुई है। सोशल मीडिया एवं टीवी चैनलों पर बवंडर उठा हुआ है। अड़चन में पड़े नेता भी तरोताजा होकर उठने लगे हैं और श्रेय का गुलाल उड़ाने लगे हैं। सामाजिक संगठन व राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपने अपने नेताओं के गले में हार डाल रहे हैं। वास्तव में जिन नालायक नेताओं की नालायकी के कारण ओबीसी आरक्षण नकारा गया था उन्हीं निकम्मे नेताओं द्वारा इसका श्रेय लेने का प्रयास किया जा रहा है। इस सफलता के साथ ओबीसी पर नया संकट आ चुका है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? नेताओं को हार-फूल मिल गया तो वे खुश हो जाते हैं साधारण कार्यकर्ता क्या हमेशा लड़ते ही रहें?
सुप्रिम कोर्ट ने निर्णय दिया और ओबीसी के राजनीतिक आरक्षण का रास्ता खोल दिया। इस निर्णय के कारण अब आरक्षित जगह पहले से कम हो गईं। नंदूरबार, पालघर व गढ़चिरौली जिलों में ओबीसी आरक्षण शून्य पर आ गया है। परन्तु संपूर्ण महाराष्ट्र में शून्य पर आया हुआ आरक्षण जो कुछ भी मिला उसे लेने और आगे की लड़ाई के लिए तैयारी करने की जरूरत है। विषम समाज व्यवस्था में शोषितों को भेदभाव रहित शुद्ध न्याय कभी नहीं मिलता। एक सफलता की खुशी मनाते हुए दूसरी लड़ाई का सवाल खड़ा किया जाता है, सुप्रिम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए यही प्रयास किया है।
बांटिया आयोग की कार्यपद्धति को लेकर हमने पहले ही सवाल उठाया था और उसमें ओबीसी की लोकसंख्या कम दिखाने के षडयंत्र का भी हमने पर्दाफाश किया था। ठाकरे सरकार व नई नई बनी शिंदे सरकार के ध्यान में भी हमने यह बात लाई थी कि-
1) बांटिया आयोग की रिपोर्ट को रद्द करें।
2) समर्पित आयोग के अध्यक्ष पद से बांटिया को हटाया जाए।
3) सेवानिवृत्त ओबीसी जज को अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया जाय।
4) संबंधित कार्यक्षेत्र के अधिकारी- कर्मचारी की समिति और उसी क्षेत्र के वर्तमान व भूतपूर्व ओबीसी जनप्रतिनिधियों की समन्वय समिति स्थापित की जाय।
5) सरकारी समितियों और गैरसरकारी समन्वयकों को इंपेरिकल डेटा इकट्ठा करने की सटीक पद्धति समझाकर बताने के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाएं।
6)विभागीय शिविर लगाने हेतु, इंपेरिकल डेटा का विश्लेषण करने के लिए लगने वाले विशेषज्ञ व उन्हें लगने वाली साहित्य- सामग्री व मानधन के लिए कम से कम 435 करोड़ की निधि उपलब्ध कराई जाय!
7) इस कालावधि में और कुछ चुनाव विदाउट ओबीसी आरक्षण होते हैं तो होने दो, परंतु अचूक व सटीक पद्धति से इकट्ठा किए गए मजबूत डेटा के आधार पर ही ओबीसी को राजनीतिक आरक्षण मिलना चाहिए।
ऐसी सूचना हमने बांटिया आयोग के कार्यरत रहते हुए ही दी थी।
इस प्रकार का निर्णय ठाकरे - फडणवीस सरकार ने ताबड़तोड़ लिया होता तो ओबीसी की लोकसंख्या निश्चित रूप से 60% के ऊपर सिद्ध हुई होती। यह मैं अंदाज से या बिना तर्क के नहीं कह रहा हूं, इसका पक्का सबूत है। मध्य प्रदेश सरकार की विनती पर केंद्र सरकार ने उन्हें 2011 में हुए SECC जनगणना का डेटा दिया है। इस डेटा के अनुसार मध्य प्रदेश राज्य में ओबीसी की लोकसंख्या 50% सिद्ध हुई है। मध्य प्रदेश आदिवासी बहुल राज्य होते हुए भी यदि वहां ओबीसी 50% हैं, तो ओबीसी बहुल महाराष्ट्र में निश्चित ही ओबीसी की लोकसंख्या 60% के ऊपर है। एस ई सी सी -2011 के नियम के अनुसार जो जनगणना हुई है वह घर घर जाकर इकट्ठा किए गए डेटा के आधार पर सिद्ध की गई है। महाराष्ट्र में अब फडणवीस की भाजपा सरकार आने के कारण केंद्र की भाजपा सरकार से यह डेटा लेने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
बांटिया आयोग के कारण मराठा आरक्षण का भूत एक बार फिर ओबीसी की छाती पर आकर बैठ गया है। यह भूत नीचे उतारकर हमेशा के लिए गाड़ना है तो तीन ही मार्ग उपलब्ध हैं।
1) 435 करोड़ निधि खर्च करके समर्पित आयोग द्वारा सटीक व अचूक पद्धति से डेटा इकट्ठा किया जाय।
2) केंद्र सरकार से एस ई सी सी -2011 के जनगणना से डेटा प्राप्त किया जाय।
अथवा
3) बिहार की तरह महाराष्ट्र में भी जाति आधारित जनगणना की जाय।
बांटिया आयोग की रिपोर्ट पर याचिका कर्ता के सारे आक्षेप दरकिनार करते हुए सुप्रिम न्यायाधीश ने आरक्षण मंजूर किया सुप्रिम कोर्ट को आरक्षण मंजूर करने की इतनी जल्दी क्यों थी? नई नई आई शिंदे - फडणवीस सरकार के कदम शुभ हैं ऐसा सुप्रिया कोर्ट को सिद्ध करना था क्या? एक हाथ से राजनीतिक आरक्षण देते देते दूसरे हाथ से नौकरियों में ओबीसी का आरक्षण कम करके मराठों को देने का षडयंत्र तो नहीं किया गया है? क्योंकि सुप्रिम कोर्ट का निर्णय आते ही अनेक मराठा नेताओं की लार टपकने लगी। ओबीसी की थाली में से बचा हुआ टुकड़ा मांगने के लिए मराठा नेताओं की लाइन ही लग गई है।
लोकसंख्या से कम आरक्षण देना चाहिए ऐसा शोध मराठा नेताओं ने किया है। वह उनके लिए सुविधाजनक भले हो किन्तु संवैधानिक नहीं है। उल्टे पर्याप्त प्रतिनिधित्व मतलब "एडइक्वेट रिप्रेजेंटेशन" यह जो शब्द संविधान के 15(4) व 16(4) आर्टिकल में इस्तेमाल किया गया है वह लोकसंख्या के आधार पर जोड़ा गया है अर्थात लोकसंख्या के अनुसार आरक्षण दिया गया तभी उस समाज घटक को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलेगा, ऐसा उसका अर्थ होता है। चूंकि ओबीसी की लोकसंख्या बांटिया आयोग के अनुसार 37% है, इसके लिए ओबीसी का आरक्षण 27% से कम करने की मांग गलत है उल्टे 37% ओबीसी को 37% आरक्षण दिया जाना चाहिए ऐसा ही संविधान कहता है।
मंडल आयोग ने जब ओबीसी की लोकसंख्या 52% तय किया था, तभी 52% ओबीसी को 52% आरक्षण देने की ही सिफारिश की थी। परंतु सुप्रिम कोर्ट के 50% की मर्यादा को देखते हुए मजबूरी में मंडल आयोग को दलित+आदिवासी के आरक्षण के बाद बचे हुए 27% आरक्षण की सिफारिश करनी पड़ी। 27% का आंकड़ा आरक्षण के कमीकरण से नहीं बल्कि सुप्रिम कोर्ट की 50% की मर्यादा से आया है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए। पर्याप्त प्रतिनिधित्व (एडइक्वेट रिप्रेजेंटेशन) मतलब लोकसंख्या के आधार पर आरक्षण यह संवैधानिक कायदा ध्यान में रखते हुए ओबीसी वर्ग को लोकसंख्या के परसेंटेज जितना आरक्षण मिलना ही चाहिए। बांटिया आयोग के अनुसार यदि ओबीसी की लोकसंख्या 37% है तो ओबीसी को 37% आरक्षण मिलना ही चाहिए। कल यदि नये सिरे से सर्वेक्षण अथवा जाति आधारित जनगणना होने के बाद ओबीसी की लोकसंख्या 65% सिद्ध हुई तो ओबीसी को 65% आरक्षण देना पड़ेगा।
होना चाहिए, मिलना चाहिए जैसी भिखारियों जैसी मांग हम बारंबार क्यों करते रहते हैं? संविधान ने हमें सब कुछ दिया है लेकिन हमारी झोली में कुछ नहीं पड़ता। संविधान के कानून यह कागज पर हैं। ये कागज के कानून यदि प्रत्यक्ष व्यवहार में उतारना है वह अपनी झोली में डालना है तो तमिलनाडु की तरह महाराष्ट्र में भी ओबीसी आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा। उसका वृतांत कल के उत्तरार्ध में पढ़ें!
तब तक के लिए जय ज्योति,जय भीम! सत्य की जय हो!
(उत्तरार्ध)
5 मई 2021 को सुप्रिम कोर्ट ने मराठा आरक्षण पर निर्णय देते हुए स्पष्ट रूप से कहा है कि, 'मराठा जाति सामाजिक व शैक्षणिक रूप से आगे होने के कारण उसे किसी प्रकार का आरक्षण नहीं दिया जा सकता। निर्णय में गायकवाड आयोग की रिपोर्ट के बोगस होने को भी स्पष्ट रूप अंकित किया है। सुप्रिम कोर्ट के इस निर्णय ने मराठा आरक्षण का विषय स्थाई रूप से हल करने के बाद फिर से बांटिया आयोग के बहाने गड़ा मुर्दा उखाड़कर बाहर निकाला जा रहा है।
मराठा पक्षपाती अजीत पवार द्वारा ओबीसी विरोधी बांटिया की अध्यक्षता में समर्पित आयोग की नियुक्ति करना, बांटिया द्वारा ओबीसी की लोकसंख्या कम करके 37% दिखाना, ताबड़तोड़ मराठा नेताओं द्वारा ओबीसी आरक्षण कम करने को कहना और ऊपर का बचा हुआ टुकड़ा मराठों के लिए मांगना आदि घटनाएं संयोग से नहीं हुई हैं बल्कि निश्चित रूप से ओबीसी के विरुद्ध बड़ा षडयंत्र रचा जा रहा है। एकनाथ शिंदे की बगावत को सपोर्ट करने के लिए मराठा आरक्षण वादी नेताओं का शिंदे से मुलाकात करना, यह घटना तो इस षडयंत्र को स्पष्ट साबित कर देती है।
5 मई 2021 के सुप्रिम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध जाकर कोई भी सरकार मराठों को आरक्षण नहीं दे सकती, यह काले पत्थर की लकीर है, ऐसा होते हुए भी यह उछल-कूद क्यों चल रही है यह हमें समझने की जरूरत है। जिनका राजनीतिक अस्तित्व दो जातियों और दो धर्मों में फूट डालने पर निर्भर है यह उनकी कारस्तान है। केंद्र व राज्य में भाजपा सत्ता में आने पर ही मराठा - ओबीसी संघर्ष की आग लगाई गई है। इस भाजपा को कभी खुलकर कभी छुपा समर्थन देने वाले अजीत पवार जैसे नेता अनेकों हैं। इन मराठा नेताओं की ऐसी समझ है कि ओबीसी का नुक़सान करने पर ही मराठों का भला होगा, अन्यथा नहीं। महाराष्ट्र में पुनः भाजपा सरकार आने व मराठा मुख्यमंत्री होने के कारण ओबीसी विरुद्ध मराठा वातावरण गर्म करने की शुरुआत हो गई है। इस जातीय संघर्ष से मराठों को आरक्षण कतई नहीं मिलेगा लेकिन भाजपा की पेशवाई व एकनाथ शिंदे की कुर्सी जरूर मजबूत होगी।
मराठों को मूर्ख बनाने के लिए 2013 में राणे समिति की नियुक्ति हुई थी वैसी ही बोगस समिति अथवा बोगस आयोग फिर से नियुक्त किया जायेगा या नये सिरे से मराठा सर्वेक्षण करने का नाटक रचा जायेगा। फडणवीस के 2016- 2019 के कार्यकाल में जो किया गया, वैसी ही शेम टू शेम नौटंकी की पुनरावृत्ति होने की संभावना है। अथवा म वि आ सरकार द्वारा नियुक्त 'राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ' बर्खास्त करके पक्षपाती - जातिवादी मराठा न्यायाधीश की अध्यक्षता में बहुसंख्य मराठा सदस्यों वाला "राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग" नये सिरे से नियुक्त किया जायेगा अथवा गायकवाड आयोग की तरह नया तमाशा खड़ा किया जायेगा। ऐसे तमाशों का क्या परिणाम होता है इसका फडणवीस को 2019 में अनुभव हुआ है। मराठा आरक्षण के भरोसे "मैं फिर से आऊंगा! मैं फिर से आऊंगा! का नारा फडणवीस ने लगाया था। वह नारा ओबीसी जागृति की लहर में कहां का कहां बह गया। ओबीसी ने 2019 के चुनाव में फडणवीस की कुर्सी ही खींच लिया।
अब शिवसेना के मराठा - बहुल विधायकों को तोड़कर फडणवीस ने जैसे तैसे सत्ता प्राप्त किया है उसे टिकाए रखना है तो ओबीसी से पंगा न लें तो ही अच्छा है। अब ओबीसी सिर्फ जागृत ही नहीं बल्कि आक्रामक भी हो चुका है। इसलिए फडणवीस को ओबीसी विरोधी वही नौटंकी खेलने से पहले सौ बार विचार करने की जरूरत है।
ओबीसी जागृत एवं आक्रामक हुआ है, संविधान हमारे साथ है, कोर्ट ने मराठा आरक्षण के विरोध में निर्णय दिया है इसलिए अब ओबीसी का संकट हमेशा के लिए टल गया है, ओबीसी इस भ्रम में न रहें! 2014 तक यानी भाजपा की सरकार आने तक हम इसी भ्रम में थे। परंतु फडणवीस ने संविधान, न्यायालय, भूतपूर्व - वर्तमान न्यायाधीश आदि सभी को जेब में रखते हुए मराठों का ओबीसीकरण किया व आरक्षण भी दिया, इसलिए आज भी ओबीसी को जागृत रहने की जरूरत है। ओबीसी कार्यकर्ता कितना भी जागरूक रहें और राजनीतिक नेता सोये हुए हों तो उस जागृति का कुछ भी फायदा नहीं होता। संकट चलकर आताही है ! अभी बांटिया का ही उदाहरण लीजिए! बांटिया ये ओबीसी के शत्रु हैं, उन्हें समर्पित आयोग का अध्यक्ष नियुक्त करना ठीक नहीं है, ऐसा हमारे जैसे विचारकों द्वारा कहने के बावजूद ओबीसी नेताओं ने बांटिया की नियुक्ति का विरोध नहीं किया, क्योंकि अजीत पवार के विरोध में बोलने की हिम्मतही हमारे ओबीसी नेताओं में नहीं है इसलिए बांटिया ने क्या गड़बड़झाला किया वह आप लोग देख ही रहे हैं। इन्हीं कायर ओबीसी नेताओं के पंटर स्थानीय निकाय चुनावों में चुनकर आते रहते हैं। कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस,, भाजपा, शिवसेना आदि पार्टियों की तरफ से चुने हुए ये लोकप्रतिनिधि पार्टियों के ही गुलाम होते हैं। वे कभी ओबीसी की मीटिंगों में नहीं आते।
ओबीसी जनगणना न करना, ओबीसी का आरक्षण कम करना, ओबीसी के लिए पर्याप्त निधि न देना, भटके- विमुक्त कर्मचारी - अधिकारियों को प्रमोशन में आरक्षण रद्द करना ऐसी ही ओबीसी विरोधी नीतियां इन प्रस्थापित पार्टियों की हैं। इन पार्टियों की तरफ से चुनकर आए हुए लोकप्रतिनिधि अपनी पार्टियों की नीतियों के विरोध में जाकर ओबीसी वर्ग के हित के लिए कभी भी लड़ ही नहीं सकते। जो ओबीसी कार्यकर्ता आरक्षण के लिए लड़े वो कभी चुनाव नहीं लड़ते और जो ओबीसी वार्ड से चुनकर आते हैं, वे कभी आरक्षण की लड़ाई में नहीं आते। ऐसे ही नालायक एवं कायर लोगों के लिए ही हम सबने आरक्षण वापस प्राप्त किया है क्या? इन्हीं नालायक लोगों के कारण प्रस्थापित पार्टियों की सत्ता उलट- पुलट कर आती रहती है और ओबीसी - दलितों पर होने वाले अन्याय जारी रहते हैं।
अब यह रुकना चाहिए, इसलिए हमने "ओबीसी राजकीय आघाड़ी" की स्थापना की है । तमिलनाडु की तरह ओबीसी आंदोलन खड़ा करने का हम सबने निश्चय किया है। मध्य प्रदेश के ओबीसी संगठनों ने आंदोलन करके राजनीतिक आरक्षण वापस प्राप्त किया। मध्य प्रदेश में आरक्षण के लिए जो कार्यकर्ता लड़े वहीं स्थानीय निकाय चुनावों में खड़े हुए और उनमें से ज्यादातर जीतकर भी आए। यही जीतकर आए उम्मीदवार सत्ता का इस्तेमाल करते हुए ओबीसी आंदोलन को और मजबूत करेंगे। मध्य प्रदेश की अपेक्षा महाराष्ट्र में ओबीसी अधिक जागृत हैं, यहां अपने ज्यादा ओबीसी उम्मीदवार जीतकर आने चाहिए, किन्तु एक प्राब्लम है।
महाराष्ट्र फुले अंबेडकर का होने के कारण प्रत्येक कार्यकर्ता खुद को फुले अंबेडकर ही समझता है इसलिए कौन किसके नेतृत्व में चुनाव लड़े? ऐसा इगो जागृत होता है इसलिए मैं श्रावण देवरे ऐसा आह्वान करता हूं कोई प्रमाणिक ओबीसी कार्यकर्ता आगे आए वो "ओबीसी राजकीय आघाड़ी" का नेतृत्व करें! मैं उसके नेतृत्व में कार्यकर्ता के रूप में काम करने को तैयार हूं।
ओबीसी राजकीय आघाड़ी का नेतृत्व परिपक्व, वैचारिक दृष्टि से मजबूत व आक्रामक होगा तो हम महाराष्ट्र में भी तमिलनाडु की तरह अवश्य ही यशस्वी होंगे इसमें जरा भी शंका नहीं है। तमिलनाडु में ओबीसी वैचारिक दृष्टि से जागृत हुआ और उसके नेतृत्व में दलित, आदिवासी, मुस्लिम, क्रिश्चियन व तथाकथित क्षत्रिय जाति भी एकजुट हुए। आज तमिलनाडु में 'गुरव' इस अल्पसंख्यक ओबीसी जाति का मुख्यमंत्री है। करुणानिधि - स्टालिन ये गुरव जाति के हैं। ओबीसी नेताओं के सत्ता में आते ही वहां के ओबीसी को 50% आरक्षण मिलने लगा। ब्राह्मणों को छोड़कर दलितों सहित सभी समाज घटकों को लोकसंख्यानुसार आरक्षण मिलता है। तमिलनाडु में कुछ जाट- मराठा जैसी खुद को क्षत्रिय समझने वाली जातियां हैं, तमिलनाडु के ओबीसी मुख्यमंत्री ने इन कथित क्षत्रिय जातियों को भी आरक्षण दिया। इसलिए तमिलनाडु में आरक्षण 69% तक पहुंच गया है। इस आरक्षण को धक्का लगाने की हिम्मत सुप्रिम कोर्ट में भी नहीं है। महाराष्ट्र में भी यदि मराठा