दलबदल की धमाचौकड़ी के दौर में फुले अंबेडकरी आंदोलन!
-प्रोफे. श्रावण देवरे
पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध एक साथ पढ़ें!
आजकल दलबदल की बाढ़ आई हुई है। हिन्दुत्व खतरे आते ही कुछ धर्मवीर पूरी पार्टी को ही छोड़ देते हैं, वहीं किसी का स्वाभिमान खतरे में आ जाता है इसलिए पार्टी बदल लेता है और कुछ महानुभाव प्रगतिशील आंदोलन बढ़ाने के लिए पार्टी बदल लेते हैं। अपने फुले अंबेडकरी आंदोलन का भाग्य (?)कितना बड़ा है कि जिसे बचाने के लिए बड़े बड़े नेतागण इस पार्टी से उस पार्टी में हमेशा ही आते जाते रहते हैं। यह आवागमन किसके फायदे के लिए होता है यह शोध का विषय हो सकता है ।
दलबदल करना जितना साधारण दिखता है उतना होता नहीं, इसमें क्या क्या कसरत करनी पड़ती है सबसे महत्वपूर्ण तो उस दलबदल को सैद्धांतिक मुलम्मा चढ़ाना पड़ता है। छगन भुजबल को शिवसेना से कांग्रेस में जाते समय ओबीसी मंडल आयोग का सैद्धांतिक मुलम्मा चढ़ाना पड़ा। उस समय ही नहीं आज भी उन्होंने ओबीसी आंदोलन को कितना समझा है ? इस प्रकार का असुविधाजनक प्रश्न कोई भी उनसे न पूछे! उसके बाद शरद पवार ने कांग्रेस छोड़कर अनेक बार नई नई पार्टियों की स्थापना की। एक बार समाजवादी नाम लिया दूसरी बार राष्ट्रवादी! आज तक वे समाजवाद से कितना अवगत हुए और उनका सामंतवादी राष्ट्रवाद कितना उच्च कोटि का है यह शोध का विषय हो सकता है।
खुले बाजार में तब्दील हो चुकी राजनीति में सिद्धांत के लिए दलबदल करना अथवा नि:स्वार्थ भाव से दलबदल करना इस पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं है। वैसे ही दलबदल करनेवाली मंडली प्रगतिशील व क्रांतिकारी हुई तो भी उसका दलबदल लोगों के गले उतारने के लिए उनके पास जबर्दस्त मुद्दे होते हैं। उदाहरणार्थ - कामरेड कन्हैया का दलबदल! भाजपा सरकार ने लोकतंत्र व संविधान को ही खतरे में डाल दिया है उसे बचाने में कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टियां असमर्थ हैं, इसलिए कन्हैया लोकतंत्र बचाने के लिए कांग्रेस में चले गए , उनके साथ गुजरात के निर्दलीय विधायक जिग्नेश भी गए। अब कांग्रेस कितनी लोकतंत्र वादी है और ये दोनों क्रांतिकारी वहां जाकर कौन सा दीया जलायेंगे यह भी शोध का विषय हो सकता है। पत्थर से ईंट भला यह नया सिद्धांत खोजकर कांग्रेस को समर्थन किया जाता है , पत्थर से सिर फूटता है और ईंट से भी सिर फोड़ने का ही काम किया जा सकता है यह इन महानुभावों को कौन समझाए? दलित नेता हंडोरे का सिर पत्थर से नहीं ईंट से फोड़ा गया है।
प्रत्येक सामाजिक या सार्वजनिक कृत्य का जैसे वैचारिक,जाति- वर्गीय आधार हो सकते हैं , परंतु हमारे यहां व्यक्तिगत मुद्दों को अनावश्यक महत्व दिया जाता है क्योंकि ये व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा इतनी शैतानी होती हैं कि उनके लिए देश, धर्म, समाज,जाति, वर्ग और उन पर आधारित सिद्धांत बिल्कुल लिजलिजा होने तक इस्तेमाल किया जाता है। भारत जैसे जाति व्यवस्था वाले समाज में जाति व धर्म का दलबदल के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। जाति के अथवा जातियों में प्रस्थापित जातियों के हितसंबंध अत्यंत प्रभावशाली होते हैं। अपनी जाति का व्यक्ति सांसद, विधायक, मंत्री होना चाहिए यह भावना इतनी प्रबल होती है कि उसके सामने कोई भी विचार, सिद्धांत नहीं टिकता। जाति का नेता भ्रष्टाचारी, बलात्कारी,चोर- डाकू कुछ भी हो चलेगा लेकिन वह मंत्री बनना चाहिए। उसके लिए मोर्चा - आंदोलन करनेवाली जातियां हैं।
किसी गुनाहगार को सजा मिलनी चाहिए ऐसा कहने वाला उसकी जाति का एक भी आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा बल्कि उल्टे वह गुनाहगार हमारी जाति का है इसलिए उसे प्रताड़ित किया जा रहा है! ऐसा कहा जाता है। इस गुनाहगार के कारण जाति की नाक कट गई, जाति की बदनामी हुई यह कहनेवाला कोई नहीं मिलेगा, उल्टे उस गुनाहगार के लिए सहानुभूति की बड़ी एवं प्रचंड लहर जाति से निर्मित होती रहती है। इन गुनाहगारों को नेता बनाने का काम प्रस्थापित पार्टियां करती रहती हैं।
भारत के चुनाव आधारित लोकतंत्र में मतपेटी तक लाने के लिए जातियों की गोलबंदी करनी पड़ती है। संख्या में बड़ी व सामाजिक दृष्टि से प्रभावशाली जातियों से जानबूझकर ऐसे व्यक्ति को टिकट व पद देकर बड़ा किया जाता है जो व्यक्ति नियंत्रण में रहे। कुछ पार्टियां अपनी प्रगतिशील छवि दिखाने के लिए कुछ प्रगतिशील सेलिब्रिटी को पार्टी की तरफ से विधायकी वगैरह देते रहते हैं। राजनीति के दिग्गज नेता भी अपनी प्रगतिशील छवि बनाए रखने के लिए ऐसे उपाय करते हैं ऐसे दिग्गज नेताओं में एक नाम शरद पवार का लिया जा सकता है, बीच में शरद पवार ने बाबा अढ़ाव के स्कूल के कुछ कार्यकर्ताओं को विधायक बनाया था। प्रगतिशील कार्यकर्ताओं- नेताओं को सांसद - विधायक बनाने से प्रगतिशील आंदोलन को कुछ फायदा हुआ हो ऐसा आज तक तो नहीं हुआ है। किंतु उसका फायदा उस दिग्गज नेता व उसकी पार्टी को जरूर मिलता है। जिस कार्यकर्ता को सांसद - विधायक बनाया उसने आंदोलन की ऊंचाई बढ़ाने के बजाय अपनी आर्थिक ऊंचाई बढ़ाया। एकाध अनुदानित शिक्षण- संस्था, आश्रमशाला मिल गई तो ये मोहरे खुश हो जाते हैं, सत्ता का इस्तेमाल करते हुए आंदोलन बड़ा करने के बजाय ये सत्ता के एहसानों से दबे रहते हैं और पवार जैसे सामंतवादियो की जय जयकार करते रहते हैं।
आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता अभ्यास करते हैं, वाचन लेखन चिंतन करते हुए लेखक साहित्यकार बनते हैं। कुछ की सुप्त गुणों को प्रोत्साहन मिलता है तो वे वक्ता, कलाकार बनते हैं। उनमें से ही लाखों में से एक नीलू फुले जैसा कार्यकर्ता अंत तक आंदोलन से एकनिष्ठ रहता है, बाकी के ज्यादातर कभी भी, कहीं भी जय जयकार करने के लिए तैयार ही रहते हैं।
कुछ तात्कालिक कारणों व अस्तित्व टिकाए रखने की धड़पड़ में शिवसेना जैसी पार्टी को चुटिया जनेऊ वाले हिन्दुत्व को त्यागना पड़ा! पहले से जो हाथ में है उसे छोड़कर दूसरे के लिए दौड़ना पड़ता है। पुरानी आइडेंटिटी वह नई आइडेंटिटी की क्राइसिस में कुछ लोगों की बलि देनी होती है उसी प्रकार शिवसेना को भी चालीस की बलि देनी पड़ी।
आज शिवसेना को कौन सा हिन्दुत्व चाहिए इसकी कोई स्पष्टता नहीं है। वे अपने दादा प्रबोधन कार ठाकरे का नाम दादा के रूप में लेते हैं या एक ब्राह्मणवाद विरोधी के रूप में इसके बारे में शंका है। राम विरुद्ध शंबूक के संघर्ष में वे आज भी राम को ही आदर्श मानते हैं। भाजपा का ब्राह्मणी राम छोड़ा नहीं जाता और प्रगतिशील आंदोलन का शंबूक स्वीकारा नहीं जाता इस प्रकार की दुविधा अवस्था है। फिर भी हमारे कट्टर अंबेडकरवादी शिवसेना के प्रचंड प्रेम में पड़े हैं शिवसेना को अभी अपनी प्रगतिशील छवि बनानी है इसलिए कुछ प्रगतिशील लोग शिवसेना में शामिल हो रहे हैं, शिवसेना में प्रवेश करने वाले प्रगतिशील व्यक्तियों का अभिनंदन करने में सबसे आगे दलित साहित्यकार एवं विचारक हैं, अभिनंदन करिए लेकिन वास्तविकता की जानकारी देना भी उतना ही जरूरी है।
शिवसेना में शामिल होने वालों को वास्तविकता की जानकारी नहीं ऐसा नहीं है। वे हम सबकी अपेक्षा अधिक होशियार हैं इसीलिए तो वे दलबदल कर रहे हैं, परंतु अभिनंदन की बौछार करते हुए उनके सिर पर वजन भी रखना चाहिए , यह सादा कामन सेंस है। कल यदि शिवसेना ने राम- दर्शन यात्रा निकाली तो उसका नेतृत्व प्रगतिशील कहलाने वाले इन्हीं उपनेताओं को करना पड़ेगा। इस राम दर्शन यात्रा से दंगा हुआ तो उसमें किसकी बलि होगी?
फुले साहू अंबेडकरी आंदोलन खत्म करने के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को बहुत ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि आंदोलन खत्म करने के बीज आंदोलन में ही बोए जाते हैं। यश के प्रचंड शिखर पर पहुंचे मा. कांशीराम साहेब व उनका बहुजन समाज आंदोलन भाजपा से गठबंधन करते करते कब खत्म हो गया वह उन्हें भी पता नहीं चला। राम विलास पासवान,रामदास आठवले जैसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं।
जाति अंतक फुले अंबेडकरी आंदोलन में आशा के सूर्य आज भी हैं यह संतोषजनक बात है। लालू यादव, एम के स्टालिन जैसे नाम आज भी दीपस्तंभ जैसे खड़े दिखते हैं। जाति अंतक फुले अंबेडकरी आंदोलन यशस्वी करना है तो लालू - पेरियार जैसे प्रमाणिक एवं गंभीर ओबीसी नेतृत्व की जरूरत है।
महाराष्ट्र में ऐसा नेतृत्व निर्माण करने के लिए हमने "ओबीसी रिपब्लिकन राजकीय आघाड़ी"* की स्थापना की है। दलबदल की अफरातफरी में ऐसे नवनिर्मिति की घटना का दुर्लक्षित रहना स्वाभाविक है क्योंकि हम भी जाने- अनजाने ब्राह्मण वाद से ग्रस्त ही हैं इसका आभास भले न हो किन्तु इसका खामियाजा प्रगतिशील आंदोलन को भुगतना पड़ता है इससे बचना है तो हमें सतत आत्ममंथन करते हुए आंदोलन को मजबूत करते रहने की जरूरत है।
ईस विषयपर आगे की चर्चा कल के उत्तरार्ध मे पढेंगे! तब तक के लिए जय जोती जय भीम! सत्य की जय हो!
-उत्तरार्ध -
मेरे कल के लेख पर प्रतिक्रिया देते हुए एक कार्यकर्ता ने टिप्पणी की कि - लोग प्रगतिशील आंदोलन से प्रस्थापित पार्टियों में जाते समय *'सत्ताधारी जमात बनो!'* यह बाबा साहेब अंबेडकर का कोटेशन देते हैं। अपना स्वार्थ छिपाने के लिए ये लोग महापुरुषों की टोपी पहनते हैं। वास्तव में महापुरुषों के विचार संस्कार बनाकर दिमाग के अंदर बिठाना होता है,उनकी टोपी बनाकर सिर रखने के लिए नहीं ।
आज सत्ताधारी बनने के लिए प्रस्थापित पार्टियों में जाने का वास्तव में मतलब क्या?
यह प्रस्थापित पार्टियां उन जातियों ने स्थापित की हैं जो सैकड़ों वर्षों से सत्ताधारी बनकर तुम्हारे ऊपर शासन कर रही हैं। गुलामगीरी के समय में तुम दास वर्ण के थे और वे स्वामी वर्ण बनकर शासन कर रहे थे। चतुर्वर्ण व्यवस्था के समय में तुम शूद्र - अतिशूद्र वर्ण के थे और वे ब्राह्मण वैश्य क्षत्रिय इन तीनों वर्णों के माध्यम से तुम पर शासन कर रहे थे। उसके बाद आई जाति व्यवस्था! जाति व्यवस्था में तुम हीन जाति के हो और वे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन वर्णों से निकली उच्च जातियां बनकर तुम पर शासन कर रहे हैं। आज लोकतंत्र में सत्ता पार्टियों की होती है इसलिए उन्होंने अपनी अपनी जातियों की पार्टियां स्थापित करके सत्ता प्राप्त किया है। वे पार्टी प्रमुख होते हैं और तुम्हारे लोग वहां दलाल - गुलाम होते हैं। फुले साहू अंबेडकर के जाति अंतक आंदोलन से लोकतंत्र व संविधान मिलने पर उसका उपयोग करते हुए उन्होंने पार्टियां स्थापित कीं और आज वे उन्हीं पार्टियों के माध्यम सत्ताधारी बने हुए हैं।
इन प्रस्थापित जातियों ने जो पार्टियां स्थापित की हैं वे अपनी जाति की सत्ता टिकाए रखने के लिए की हैं तुम शूद्रातिशूद्रों को सत्ताधारी बनाने के लिए नहीं! आज ये प्रस्थापित जातियां अपनी सत्ता टिकाए रखने के लिए लोकतंत्र व संविधान नष्ट करने पर आमादा हैं,ऐसी परिस्थिति में वे लोकतंत्र व संविधान माननेवाले फुले अंबेडकरी कार्यकर्ताओं को सत्ताधारी बनाने के लिए अपनी पार्टियों में प्रवेश देंगे क्या?
हमारे लातूर के ओबीसी नेता अण्णाराव पाटिल हमेशा कहते हैं कि - "हमें सत्ता में बिठाकर वे भेड़ बकरियां चराने जायेंगे क्या???" "कुनबियों (कुनबटों) को असेंबली में चुनकर लाकर हम ब्राह्मण खेत में जाकर हल चलायेंगे क्या?" तिलक के कहने का यही मतलब था। सत्ता के लिए ब्राह्मणों के विरोध में लड़ने वाले उस समय के कुनबट आज मराठा सामंतवादी बने हुए हैं और अपनी जाति की पार्टी स्थापित करके सत्ताधारी जमात बने हुए हैं। मराठा जाति सत्ताधारी बनने के बाद वे भी अन्य शूद्र जातियों को सत्ता से वंचित रखने का ही काम कर रहे हैं, कल माली अथवा धनगर जाति ऐसे ही किसी कारण से सत्ताधारी बनी तो वे भी अन्य शूद्र जातियों को सत्ता से वंचित ही रखेंगी इसमें कोई शंका नहीं है। जबतक जाति व्यवस्था जीवित व मजबूत है तब तक ब्राह्मण जाति प्रथम सत्ताधारी रहेगी सिर्फ दूसरे स्थान के सत्ताधारी जाती बदलती रहेंगी। बौद्ध कहे जाने वाले महार जाती के लोग यदि कल सत्ताधारी हुए तो भी सत्ता सोपान की इस जातीय रचना में कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा।
तब प्रश्न सत्ताधारी बनने का नहीं बल्कि संपूर्ण व्यवस्था बदलने की है, व्यवस्था बदलने के लिए सत्ताधारी जमात बनना है। बाबा साहेब के कहने का यही अभिप्रेत था। जो फुले साहू अंबेडकर जाति व्यवस्था नष्ट करने निकले थे वे एक जाति - जमात को सत्ताधारी बनने का सुझाव कैसे दे सकते हैं? सत्ताधारी जमात मतलब शासक वर्ग या समाज घटक जो जाति अंतक विचारधारा को स्वीकार करके सत्ता का उपयोग जाति अंत के लिए करेगा! उन्होंने जो आजीवन जाति अंतक विचारधारा का प्रचार प्रसार किया वह सिर्फ एकाध जाति को सत्ता में बिठाने के लिए नहीं।
करीब करीब सभी बहुजन जातियों में यही मीठा गैरसमझ है कि अपनी जाति के ज्यादा से ज्यादा सांसद विधायक चुनकर आयें , मंत्री बने तो हम हो गए सत्ताधारी! तुम्हारी जाति का व्यक्ति मंत्री मुख्यमंत्री क्या प्रधानमंत्री व राष्ट्राध्यक्ष होने पर भी तुम्हारी जाति का सत्ताधारी बनना तो दूर तुम्हारी जाति का सादा विकास भी नहीं हो सकता। यह वसंत राव नाईक, छगन भुजबल, गहलोत, मोदी, कोविंद आदि ने सिद्ध किया है और अब द्रोपदी मूर्मू भी वही सिद्ध करनेवाली हैं। एकाध जाति में प्रस्थापित पार्टियों के टिकट पर सांसदों विधायकों की संख्या बढ़ाना मतलब दलाल- भड़वों की संख्या बढ़ना, दलालों की संख्या जितनी ज्यादा होगी वह समाज उतना ही ज्यादा बेचा जायेगा।
आर एस एस ने शिवसेना को सत्ताधारी ब्राह्मणी छावनी में लेने के लिए 1994-95 में उनका कैडर कैंप लिया था। उसके