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लोकसभा मे ‘इंडिया’ और राज्य मे ‘महा-युती’ को
क्यों चुना ओबीसी ने?
ओबीसीनामा-41. भाग-4. लेखक: प्रोफे. श्रावण देवरे
छे महिने पहले दलित ओर मुस्लीम समाज के साथ साथ ओबीसी मतदाओं ने भी महाराष्ट्रा मे ‘मविआ’ और ऑल इंडिया लेव्हलपर ‘‘इडिया’’ आघाडी को वोट दिया था। क्योंकी अगर केन्द्र मे ‘इंडिया’ आघाडी की सरकार आयेगी तो जातीगत जनगणना हो सकती थी। और राहूल गांधी पहिली बार लोकसभा ईलेक्शन की प्रचार सभाओं मे ओबीसी की बात कर रहे थे। इस लिए ओबीसी मतदाताओं ने अपने हितसंबंधों (Caste related Interest) की वजहसे इंडिया को वोट दिया।
लेकीन छे महिने बाद हुए महाराष्ट्रा के असेंब्ली ईलेक्शन मे ओबीसी-मराठा संघर्ष का मुद्दा अहम था और जरांगे की हिंसा की वजह से ओबीसी डरे हुए थे। अगर शरद पवारप्रणित ‘‘मविआ’’ सत्ता मे आयेगी तो जरांगे का ओबीसी के खिलाफ हिंसाचार बड जाता। कोई एक व्यक्ती या समाज की सुरक्षा का सवाल खडा हो जाता है तो वो अपनी जान बचाने के लिए कुछ भी कर सकता है, और यही हुआ महाराष्ट्रा के असेम्बली ईलेक्शन मे। इसके वैचारिक आधार को लेकर मै कुछ मुद्दे रखना चाहता हुं।
जब से जीव अस्तित्व में आया शुरुआत से ही जीव को बचाना (Survive) सभी सजीव प्राणीयों की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। दूसरी प्राथमिकता जीव का पुनरोत्पादन (Re-production) करना रहा है। एककोशिकीय प्राणी एमीबा से लेकर आधुनिक मानव तक, प्राणियों में जीने की, जीवन बचाने की और जीवन को सुरक्षित एवं संरक्षित करने का संघर्ष निरंतर जारी है। खाद्य श्रृंखला में वह संघर्ष अत्यंत अधोरेखित होता है।
जान लगाना, जान देना, जान लेना इन सभी क्रियाओं पर 'जान बचाना’ सब पर भारी ऐसी क्रिया है। जान बचाने की क्रिया उसके जन्म से जुड़ी होने के कारण यह लगातार एक अत्यंत जागृत और क्रियाशील स्वरूप में जीव के साथ रहती है। एक व्यक्ति जो अपने खुद को आजाद करने के लिए आत्महत्या करता है उसे कायर कहा जाता है, फिर भी एक व्यक्ति केवल असहनीय पीड़ा से अपनी जान बचाने के लिए ही आत्महत्या करता है। आत्महत्या यह किसी मनुष्य के जीवन की एकमात्र ऐसी कृति है जिसे करने से पहले वह 100 बार सोचता है, और कई दिनों के उहापोह में वह जान बचाने का मार्ग ढूंढ़ते रहता है जब जीने के सभी मार्ग बंद नजर आते हैं तभी वह आत्महत्या करने को प्रवृत्त होता है।
दूसरों के लिए स्वेच्छा से जान देने को और बलिदान करने वाले को शहीद कहा जाता है, यह कृति करके वह अपनी जान देकर भी अजर अमर हो जाता है। अपनी औलाद की जान बचाने के लिए जानलेवा संघर्ष करनेवाले जंगली जानवर से लेकर आधुनिक मानव तक के मां-बाप की कहानियाँ हम पढ़ते रहते हैं, किन्तु अपनी जान बचाने के लिए अपने ही बच्चे के सिर पर पैर रखकर छलांग लगानेवाली बंदरी की कथा भले ही हमें पसंद न हो फिर भी वह सबसे अधिक विचारणीय है।
‘‘आत्महत्या करना कायरता है, बलिदान देना बहादुरी है, जान भले ही चली जाय लेकिन अपने उसूलों से समझौता नहीं करेंगे’’ जैसे अनेक सिद्धांत आज मानव समाज में मान्यता प्राप्त हैं। लेकिन जब जीव के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा होता है तब सारे उसूल सिद्धांत एक क्षण में किनारे कर दिए जाते हैं।
जीव केवल हमारे शरीर में ही रहता है ऐसा नहीं है बल्कि वह अपने रक्त संबंधियों, वंश व समाज में भी रहता है। जब अपने अपने समाज के अस्तित्व पर खतरा होता है जब समाज की सुरक्षा का सवाल सामने आकर खड़ा हो जाता है, तब उस समाज के नेता देश व भाषा आदि को छोड़कर समाज के अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ने को तैयार होते हैं। जिस तरह से हम जीवन बचाने के लिए प्रकृति से लड़ते हैं और फिर प्रकृति के बदलते परिवेश के अनुकूल बदलते रहते हैं! "Survival of the fittest" डार्विन का यह सिद्धांत इसके अलावा अलग क्या कहता है!
जीवन बचाने यानी 'जीवन सुरक्षा' का यह पुराण मुझे आज लिखने आवश्यकता क्यों पड़ी? क्योंकि भारत में, ऐसे कई सामाजिक घटक हैं जिन्हें जानबूझकर "असुरक्षित" किया गया और असुरक्षितता पर आधारित एक संपूर्ण समाज व्यवस्था का निर्माण किया गया। शासन-शोषणकारी यह समाज व्यवस्था असंख्य सामाजिक घटकों के जान से खेलती रहती है, परिणामस्वरूप, हर समाज घटक अपने स्वतंत्र स्वरूप को टिकाए रखने के लिए संघर्ष करते रहता है। जिसके कारण वह व्यवस्था और अधिक मजबूत होती रहती है।
अस्तित्व टिकाए रखने के लिए और अपने हित संबंध अधिक दृढ़ करने के लिए समान हितसंबंधी समाज घटक सह-अस्तित्व में आते हैं और उनका विकास होता है। जातिव्यवस्था के शोषक- शासक समाज घटक समान हित संबंधी होने के कारण एकत्र आते हैं और अपनी शोषण-शासन की समाज व्यवस्था मजबूत करते हैं वर्णव्यवस्था के बुद्धपूर्व कालमे ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य यह तीन वर्ण एक दुसरे के शत्रू होते हुए भी एकसाथ मिलकर शूद्रादिअतिशुद्र वर्णों का शोषण करते थे। ठीक वैसेही जातीव्यवस्था कालमे ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य इन तीन वर्णोंसे निकली जातियां अपनी हितसंबंधों के लिए दोस्ती करते है और दलित+ओबीसी+आदिवासीयों का शोषण-शासन करते है। परंतु शोषित-शासित समाज घटक समान हित संबंधों के लिए एक साथ नहीं आते, क्योंकि वे असुरक्षा के कारण वे अपने-अपने स्वयं के समाज (जाती) के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए ही संघर्ष कर रहे होते हैं।
फुले-अम्बेडकर ने शोषित-शासित समाज घटकों को एकजुट करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया, लेकिन आज भी, प्रत्येक जाति के नेता अपनी अपनी जाति के अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई (Polarisation) करके शूद्रों अति शूद्रों को समान हित संबंध के आधार पर संगठित (Confederation) करने का प्रयास किया। किन्तु अब्राह्मणी समाज घटकों में क्षत्रिय जमींदार जाति प्रभुत्वशाली होने के कारण उसके बदलते हित संबंधों के लिए ब्राह्मण और वैश्यों से जाकर मिल गए और उन्होंने शोषण-शासन पर आधारित समाज व्यवस्था (जातिव्यवस्था) को और अधिक मजबूत किया।
डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर ने संविधान में समान सांस्कृतिक हित संबंध पर आधारित तीन कटेगरी में शूद्रों - अति शूद्रों को संगठित होने के लिए आह्वान किया। गांव के बाहर की बस्ती की संस्कृति पर आधारित ‘एस्सी’, जंगल की संस्कृति पर आधारित ‘आदिवासी’ (एसटी) और गांव की कृषि संस्कृति पर आधारित ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ (ओबीसी) ये हैं वे तीन (Sc+St+OBC) वर्ग!
किन्तु इन तीनों वर्गों में कुछ जातियाँ ताकतवर होने के कारण उन्होंने अपनी ही कटेगरी की अन्य छोटी अजागृत जातियों को उनका हिस्सा देने का विरोध किया है कटेगरी के उप वर्गीकरण का यही ताकतवर जातियाँ विरोध करती हैं इसके पीछे असुरक्षा की भावना प्रबल रहती है खुद का अस्तित्व व विकास केवल अपने जाति के आधार पर हम खोजते रहते हैं संवैधानिक वर्ग के आधार पर नहीं, इसलिए दलित, आदिवासी व ओबीसी जाति वर्ग ये अपने अपने कटेगरी के विभाजन को जाति के आधार पर समर्थन व विरोध करते हैं।
जाति के आधार पर दिया गया आरक्षण जाति अंत की तरफ न जाते हुए जाति मजबूती की तरफ जा रहा है, और इस पाप की जिम्मेदार प्रत्येक वर्ग- कटेगरी की प्रभुत्वशाली जातियाँ ही हैं।
विविध समाज घटकों को जाति धर्म के आधार पर असुरक्षित रखने के लिए प्रस्थापित जातियाँ क्या क्या षडयंत्र करती रहती हैं, उस पर हम लेख के पांचवे भाग में विचार करेंगे!
तब तक के लिए जय जोती, जय भीम, सत्य की जय हो!
- प्रोफे. श्रावण देवरे, संस्थापक-अध्यक्ष,
ओबीसी राजकीय आघाडी,
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लेखन तिथि: 13 दिसंबर 2024
मराठी से हिन्दी अनुवाद- चन्द्रभान पाल
*महत्वपूर्ण नोट: 1) लेखाचा हा चौथा भाग दैनिक बहुजन सौरभ ने ‘‘मराठी भाषेत’’ दिनांक 14 डिसेंबर 2024 रोजी प्रकाशित केलेला आहे.
2) लेखाचा हा चौथा भाग साप्ताहिक वैभव, एकसत्ता ने वेबसाईटवर ‘‘मराठी भाषेत’’ दिनांक 13 डिसेंबर 2024 रोजी प्रकाशित केलेला आहे. त्याची लिंक पुढीलप्रमाणे-
https://aklujvaibhav.in/?p=7644
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3) इस आर्टिकल P-4 की ‘‘हिन्दी’’ pdf copy की लिंक-
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