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साधना का मार्ग
यतो धर्म: ततो जय:
निवेदिता स्वामी विवेकानन्द के साथ अमरनाथ यात्रा पर गयीं,उन्होंने देखा कि स्वामीजी शान्त भाव से चाले जा रहे थे | उनके अन्तर का अनुराग नेत्रों से टपक रहा था | कभी-कभी वे कुछ गुनगुनाने लगते और उन्होंने पाया कि भाषा से अनभिज्ञ होने पर भी भाव की सरसता उन्हें भी आप्लावित करने लगी है | धीरे-धीरे चलते हुए उनका दल देवाधिदेव के मन्दिर के पास पहुँचा, और तीर्थयात्रियों की भक्ति के साथ मिलकर जय घोष ने वातावरण को प्रकम्पित कर दिया |
अपने गुरुदेव के साथ भगिनी ने भी गुहा के परम पवित्र गर्भगृह में प्रवेश किया | सामने ही शिव-लिंग के रूप में प्रतिष्ठित ईश्वर के दर्शन कर आनन्दातिरेक में उनकी आँखों से अश्रु बिन्दु लुढ़क पड़े | उन्होने देखा-भक्तिपूर्वक प्रणाम और पूजा करने के पश्चात् स्वामीजी समाधि में मग्न हो गये है | वे सोचने लगीं -'निश्चय ही मैं यहाँ आकर ईश्वर एवं गुरु के और अधिक निकट आ गयी हूँ, परन्तु समाधि !' उन्हें अपनी असमर्थता पर खेद हुआ -'काश ! वह भी उस परमसत्ता के साथ एकत्व का अनुभव कर पातीं |'
वापसी का मार्ग अपेक्षाकृत सरल होने पर भी तीर्थ यात्रा की अपूर्णता के बोध ने उसे कठिन बना दिया था.......... उनके मन के भावों को जानकर साथ चल रहे गुरुदेव विवेकानन्द स्नेहासिक्त कंठ से बोले - 'तुम्हारी तीर्थ यात्रा पूर्ण हुई| तुम निश्चय ही समय आने पर इसका फल पाओगी | '
गहरी निराशा से भरकर वे बोली, 'न जाने वह समय कब आएगा स्वामी जी ?' स्वामी जी हँसते हुए कहने लगे - 'देखो, अपने निर्दिष्ट लक्ष्य को ढूँढती हुई सरिता कभी दुर्गमता या वक्रता को देखकर वह कभी भयभीत नहीं होती, क्योंकि वह जानती है, विश्वनियन्ता ने उसको चाहे जैसा भाई कठिन पथ क्यों न दिया हो, प्रवाहित होने की शक्ति और श्रेष्ठतम लक्ष्य भी तो दिया है, जिसमे मिलकर एक न एक दिन वह पूर्णत्व को प्राप्त करेगी ही, फिर भय कैसा ? मनुष्य को चाहिए कि वह धैर्यपूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे,बस इतना ही उसका कर्तव्य है | '