विवेकानन्द-विद्युत् विरजानन्दजी की धमनी में किस प्रकार सहज-स्वच्छन्द रूप से दौड़ती थी, यह उन्हें देखने या उनकी बाते सुनने से तो अनुभव होता ही था, उनके पत्र-व्यवहार में भी यह सहज ही प्रकट हो उठता था। उदाहरण के रूप में यहाँ उनके कुछ पत्रों के अंश उद्धृत किए जा रहे है, जिनकी हर पंक्ति से मानो विवेकानन्द ही झाँक रहे हैं। एक युवक को उन्होंने लिखा था -
'वीर बनना चाहिए और संसार को तुच्छ समझना चाहिए। मै बड़ा दुर्बल हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता, आप ही सब कर दीजिए इन सब भावों का त्याग किए बिना कुछ भी नहीं होगा। उपदेश तो तुम्हें पर्याप्त दिए जा चुके है। यदि तुम उनका पालन न कर सको, तो कोई भी तुमसे कुछ करवा नहीं सकेगा। तुम्हें मैंने जो भी पत्र लिखे हैं, उन्हें बार-बार पढ़ना और उन्हीं के अनुसार चलने की चेष्टा करना। ठीक-ठीक धर्मलाभ करना बहुत कठिन है - सबको नहीं होता। भीगा और असार काठ हो, तो ठाकुर भी उसकी ओर दृष्टिपात् नहीं करना चाहते थे।' इस पत्रांश में स्नेह तथा करुणा के साथ तेज तथा शक्ति का कैसा अपूर्व समन्वय है!
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by
success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26