कार्यभार-नियोजन
सन् १९०० में जब स्वामीजी ने कल्याण महाराज को संन्यास में दीक्षित किया तो उन्होंने पूछा, 'अच्छा, कल्याण, मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में देने के लिये तुम्हारे पास क्या है?' कल्याण महाराज ने कदम आगे बढाते हुए पास आकर कहा, 'यह लीजिये, मैं स्वयं को ही आपके प्रति समर्पित करता हूँ। मैं आपका दास हूँ, मुझे कोई भी आज्ञा दीजिये, मैं आदेश का पालन करूँगा।' स्वामीजी ने कहा, 'यही तो मुझे चाहिये। हरिद्वार जाओ। मैं तुम्हें कुछ धन दूँगा। कुछ जमीन खरीदो, झाड़ियाँ-जंगल साफ करके कुछ झोपड़ियाँ बनाओ। हरिद्वार जानेवाले अनेक तीर्थयात्री कष्ट पाते हुए मर जाते है क्योंकि उन्हें कोई औषधि-पथ्यादि की सहायता नहीं मिलती। और कोई उनके बारे में चिन्ता भी नहीं करता। जब मै वहाँ था तो मुझे एक डाक्टर के लिये सौ मील मेरठ जाना पड़ा। मेरठ में अस्पताल तो है परन्तु अनेकों वहाँ नहीं जा सकते। अतः इस प्रकार का कुछ निर्माण हरिद्वार में करो। यदि तुम सड़कों के किनारे लोगों को रोग से कष्ट पाते देखो तो उन्हें झोपड़ियों में लाकर उनका इलाज करना। बंगाल को मन से निकाल दो! यहाँ फिर मत आना! जाओ!' अतः कल्याण महाराज गये। स्वामी स्वरूपानन्दजी, जो उस समय मायावती में थे, तथा स्वामी विज्ञानानन्दजी को यह घटना ज्ञात हुई। स्वामी स्वरूपानन्दजी ने कुछ धन का संग्रह कर उन्हें भेजा तथा उनसे भेंट करने भी गये।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by
success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26