रोगियों के प्रति उनकी उद्विग्नता
एक अन्य समय उन्होंने एक रोगी के बारे में कहा, 'मानो तुम्हारा भाई भी वैसा हो तो तुम उसके लिये क्या करोगे? तुम्हें इस दृष्टि से सोचना चाहिये। वे सभी यहाँ तुम्हारे पर पूरा भरोसा रख कर आते हैं। यदि तुम रोगी को उसके हाल पर छोड़ दो तो उन्हें देखनेवाला कोई नहीं है। वे और कहीं नहीं जा सकते। सबसे अधिक आवश्यक बात यह है कि हम यहाँ उन्हीं की सेवा के लिये हैं। इसे कभी मत भूलना। लोग यहाँ पूरी तरह हमारे भरोसे आते हैं। तुम्हें उन्हें अपना समझकर इलाज करना चाहिये। कभी किसी रोगी को अस्वीकार मत करो।' उन्होंने डाक्टर को विशेषकर बताया, 'नारायण को बताये बिना किसी रोगी को अस्वीकार न करना। और उसे बताये बिना किसी रोगी की अस्पताल से छुट्टी भी मत करना।' यह इसलिये था कि डॉक्टर सोच सकता था कि रोगी बिल्कुल ठीक है और घर जा सकता है, परन्तु हो सकता था कि घर लौटने पर न तो कोई उसकी देखभाल करे और ही अच्छा भोजन दे; और हो सकता है कि कमजोरी की हालत में ही उसे काम करना पड़ जाता। अतः महाराज कहते, 'उसे और दो दिन रखो और अच्छी तरह खिलाओ, जब उसमें शक्ति आ जाये तब तुम उसे घर भेज सकते हो।' वे इस मामले में बड़े सावधान रहते थे कि प्रत्येक रोगी स्वास्थ्य और शक्ति अर्जित करके ही लौटे क्योंकि वे सभी निर्धन लोग थे और उन्हें काम करना पड़ता था। अस्पताल से छुट्टी करने के बाद भी हम उन्हें भोजन की आपूर्ति किया करते थे। वे इसे रसोईघर में लेने आते थे। दवाइयाँ भी दी जाती थीं। हमारी अपनी 'आर. के. मिशन' बोतलें थी। ये सभी आकारों की थीं। हम उनमें दवाई भर कर बाहरी रोगियों को दिया करते थे।
यदि कोई रोगी गम्भीर होता तो उसे जाकर देखना भी मेरा कर्तव्य हो गया : उसे क्या हुआ है? वह कैसा है? क्या हम उसके लिये और कुछ कर सकते हैं? उदाहरण के लिये, यदि कोई दवाई हमारे पास न होती तो हम उसे बाहरी स्रोतों से प्राप्त करने का प्रयत्न करते। या कभी कभी हमारा डाक्टर उस रोगी के लिये योग्य न होता और हमे दूसरे डाक्टर को लाने की आवश्यकता पड़ती। उस क्षेत्र में एक मेडिकल स्कूल तथा म्युनिसिपल (शहरी) अस्पताल या और हम उनसे सम्पर्क बनाये रखते। डाक्टर बोस नाम के एक स्थानीय प्राइवेट डाक्टर भी थे जिनकी सेवाएँ उपलब्ध थीं। इस प्रकार से महाराज विशेष रूप से देखते थे कि हम प्रत्येक रोगी के लिये जो भी बन पड़े उसके लिये भरसक प्रयत्न करें। उनका ध्यान सर्वदा रोगियों की ओर रहता कि हम उनकी सेवा किस प्रकार से कर पायें। आस पड़ोस के गरीब लोगों को इस अस्पताल की आवश्यकता थी क्योंकि उनके लिये जाने की और कहीं भी जगह न थी। वे कहा करते कि कल्याणानन्द महाराज उनके लिये भगवान हैं। मैंने अनेक बार स्थानीय लोगों को स्वामी निश्चयानन्दजी की प्रशंसा करते भी सुना। वे वास्तव में ही उनके प्रति कृतज्ञ थे, क्योंकि उन्होंने उनकी सेवा इस प्रकार से की थी, मानो वे उनके अपने ही थे। उन सभी लोगों ने इसे याद रखा था। प्रत्येक व्यक्ति कहा करता था कि दूसरे व्यक्ति वे थे जिन्होंने सभी रोगियों की बड़े यत्न और स्नेह से सेवा की। जब भी मैं ऐसा सुनता तो मैं सोचता; क्या हम भी कभी इस स्तर पर पहुँच सकते हैं?
एक अन्य बात महाराज यह कहा करते थे, 'तुम सेवा करने आये हो, करवाने नहीं। कोई दूसरा तुम्हारी सेवा करे इससे अच्छा है कि बीमार मत पड़ो।' वे इस विषय में बड़े सावधान थे। यहाँ तक कि यदि हमें जरा भी मलेरिया बुखार होता तो हम उन्हें नहीं बताते थे। हम कुछ दवाईयाँ ले लिया करते थे और काम में लगे रहते थे, क्योंकि हम यह कभी नहीं चाहते थे कि हम बिस्तर पकड़ लें और स्वयं दूसरे की सेवा करने के स्थान पर हमें किसी और से सेवा करवाने की आवश्यकता पड़ जाये।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
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success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26