कोलकाता के विशिष्ट चिकित्सकगण महाराज की अद्भुत सहनशीलता को देखकर विस्मित रह जाते थे। असह्य शारीरिक कष्ट के बीच भी वे कहते, 'मुझे क्या चिन्ता है? मेरे ऊपर उनकी अपार कृपा है; बिना माँगे ही सब दिया है। और समय हो जाने पर, मेरे बिना कहे वे मुझे गोद में उठा लेंगे।' रोग- शय्या पर लेटे हुए भी वे भक्त-दर्शनार्थियों के प्रति करुणा दिखाने में ज़रा भी कृपणता नहीं करते थे। ऐसी अवस्था में भी उन्होंने दो-एक मधुर बातें कहकर या क्षण भर की स्नेह भरी दृष्टि से सैकड़ों तापित लोगों को शान्ति प्रदान की। यहाँ तक कि जब वे शारीरिक क्लान्ति या विभिन्न कार्यों में व्यस्तता के कारण आए हुए जिज्ञासुओं से बात नहीं कर पाते थे, तब भी वे उनकी हित-चिन्ता से विरत नहीं होते थे। उनसे बातें करने का अवसर न पाकर, उनके एक युवक शिष्य ने एक बार उनसे शिकायत करते हुए एक पत्र लिखा। इसके उत्तर में उन्होंने लिखा था, 'केवल बातें करना मैं बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। तुम लोग चाहे दूर रहो या निकट, अपने द्वारा दीक्षित प्रत्येक शिष्य के लिए मैं ठाकुर तथा माँ के चरणों में प्रार्थना करता हूँ और उनके लिए शुभ कामना करता हूँ। तुम अपने मन में कोई खेद या दुःख मत रखना।'
वे जिज्ञासुओं की विभिन्न जटिल समस्याओं का बड़े ही सहज-सरल भाव से समाधान कर देते। अपने जीवन में उन्हें विविध प्रकार के अनुभव हुए थे अतः किसी भी समस्या के समाधान में उनकी अपूर्व दक्षता दीख पड़ती थी। उनकी 'परमार्थ प्रसंग' पुस्तक इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण है। उनका यह उपदेश-संकलन हिन्दी, अँग्रेज़ी, मराठी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं में अनूदित होकर देश-विदेश के असंख्य जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन कर रहा है।
जैसे खेल से थका हुआ एक बालक माँ की गोद में जाकर विश्राम करने को व्याकुल हो उठता है, स्वामी विरजानन्द भी उसी प्रकार चिर-विश्राम के लिए उत्कण्ठित हो रहे थे। श्रीमाँ सारदा देवी के आविर्भाव की शताब्दी निकट थी। मातृपूजा के इस समारोह के लिए पहला दान महाराजजी से ही संग्रह किया गया। दान में दिए गए रुपयों की रसीद को परम भक्ति के साथ अपने सिर से लगाते हुए उन्होंने अपने सेवक को आदेश दिया कि उसे उनके सिरहाने तकिये के नीचे रख दिया जाए, क्योंकि उसके माध्यम से उन्हें माँ का स्मरण होता रहेगा। कभी-कभी उनके सेवक उन्हें धीमे स्वर में कहते सुनते, 'हे प्रभो, हे माँ!' और कभी यह प्रार्थना करते हुए सुनते, 'माँ, मुझे अपने पास बुला लो, पास बुला लो।'
स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने 'अतीतेर स्मृति' (In English - The Story of an Epoch) नामक बँगला ग्रन्थ में महाराज के तपोपूत महाजीवन का एक अत्यन्त मनोहर चित्रण किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रीरामकृष्ण के पदचिह्नों पर चलनेवाले लोग इस महान जीवन से संसार-पथ के लिए काफ़ी मूल्यवान पाथेय ग्रहण कर सकेंगे।
" उनके सुदीर्घ जीवन में श्रीमाँ, स्वामीजी तथा श्रीरामकृष्ण के अन्य पार्षदों का सहयोग इतने घनिष्ठ भाव से प्राप्त हुआ था कि लगता मानो वे भी श्रीरामकृष्ण के ही शिष्यों में एक हैं। वस्तुतः वराहनगर मठ की जाज्वल्यमान अग्निशिखा ने जिन जीवनों को साक्षात् रूप से प्रदीप्त किया था, स्वामी विरजानन्द के महासमाधि के साथ उनमें से कोई भी बाकी नहीं बचा। इसीलिए उस बहुमानित अग्निशिखा की अन्तिम किरण की विदा का क्षण निश्चित रूप से सबके मन में एक गहरी वेदना तथा शून्यता का बोध जाग्रत कर गया है। "
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by
success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26