स्वयं संघगुरु का आदेश!
मैंने अधिक बातचीत नहीं की, केवल इतना ही कहा, 'मैं यहाँ आज ही पहुंचा हूँ।' महाराज ने वासुदेव नामक एक ब्रह्मचारीजी को बुलाया तथा जिस भवन में वे (स्वामी कल्याणानन्दजी) रहते थे, उसी में मेरे रहने के स्थान का प्रबन्ध करने को उसे कहा। उन्होंने बँगला भाषा में उन्हें कहा कि वे मेरे स्नान, भोजन तथा वस्त्रों इत्यादी का सारा प्रबन्ध कर दें। ब्रह्मचारी महाराज बहुत मृदु तथा स्नेही थे। एक अन्य ब्रह्मचारी महाराज ने उनका हाथ बंटाया और दोनों ने ऐसा व्यवहार किया कि मानो वे मुझे जानते हों। उन्होंने मुझे स्नान करने को कहा और फिर मुझे नये वस्त्र दिये। मुझे ऐसा व्यवहार मिला कि विश्वास नहीं हो रहा था। वे तो मेरे अपनों जैसे लग रहे थे। उन्होंने मेरे लिये शय्या का प्रबन्ध किया और उस संध्या को मुझे कुछ अच्छा भोजन मिला। स्वामी ब्रह्मानन्द महाराज का जन्मदिन दो दिन पहले ही मनाया गया था अतः वहाँ बहुत सी मिठाइयाँ थीं। उन दोनों ने पास बैठकर मुझे भोजन कराया।
इसके पश्चात् मैं महाराज के पास आया। उन्होंने मेरे स्वास्थ्य का हाल जाना और कहा, 'तुम्हारी हालत खराब हो गयी है।' (मेरे पैरों की स्थिति खराब थी तथा अन्य कुछ समस्याएँ थीं, दूसरे दिन मैं अस्पताल गया) महाराज बहुत दयालु थे। उन्होंने मेरे पूरे जीवन के बारे में पूछताछ की और पता लगाया कि मैं स्वामी अखण्डानन्द महाराज से कैसे मिला। उन्होंने अखण्डानन्द महाराज का बंगला में लिखा पत्र पढ़ा। इस में लिखा था, 'छेलेके पाठाच्चि; जत्न कोरे देखबे।' अर्थात्, 'इस लड़के को मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, अच्छी तरह से देखभाल करना।' पत्र में और कुछ नहीं; बस, यही बात थी – यह नहीं कि वह एक संन्यासी बनेगा या ऐसी कोई और बात। बाद में स्वामी कल्याणानन्दजी ने कहा, 'मेरे सम्पूर्ण जीवन में किसी ने भी, यहाँ तक की संघ के महाध्यक्ष महाराज ने भी, पहले कभी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं भेजा और न ही कभी उसकी देखभाल करने को कहा। और ये आदेश संघ के महाध्यक्ष के थे।'
स्वामी अखण्डानन्दजी से मेरी प्रथम भेंट
कुछ महीनों पहले जब मैं स्वामी अखण्डानन्दजी से पहली बार मिला था तो उन्होंने मुझसे पूछा था कि मैं क्या बनना चाहता हूँ। मैंने कहा कि मैने स्वामी विवेकानन्द के भाषणों और लेखों को पढ़ा है और उन्होंने मुझ पर अत्यधिक प्रभाव डाला है। मैं अरविन्द घोष तथा रमण महर्षि के बारे में भी कुछ जानता था, और मैं महात्मा गान्धी से भी मिला था तथा उनके स्थान पर सामाजिक कार्य भी कर चुका था, परन्तु वहाँ आध्यात्मिक वातावरण नहीं था। वे सभी अपनी जगह अच्छे थे परन्तु मैंने अनुभव किया कि स्वामीजी के विचारों में कुछ विशेष बात है : उनमें केवल अच्छा जीवन बिताने की ही नहीं वरन् लोगों की सहायता तथा सेवा की भी बात है। व्यक्तिगत संघर्ष तथा आध्यात्मिक विधि से दूसरों की सहायता करने का यह संयुक्त आदर्श मुझे बहुत भाया। मैंने अखण्डानन्द महाराज को बताया, 'इस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है और यही मेरा आदर्श है, मैं ऐसा ही स्थान चाहता हूँ।' अखण्डानन्द महाराज ने मुझे बताया, 'मैं तुम्हें ऐसे ही स्थान पर भेजूंगा, और तुम्हें वहाँ बहुत अच्छा लगेगा। वहाँ उचित व्यक्ति है और उचित वातावरण है।' इसीलिये उन्होंने मुझे कनखल भेजा जहाँ स्वामीजी के मन्त्रशिष्य स्वामी कल्याणानन्दजी कार्यरत थे। वे उस आदर्श के मूर्तरूप थे जिसकी मुझे तलाश थी। अतः उन्होंने मुझे हरिद्वार जाने की आज्ञा दी और कहा कि वे स्वामी कल्याणानन्दजी को इस विषय में पत्र लिख देंगे।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
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success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26