स्वर्ग में भी मुनीमी !
मेरे आने के कुछ दिनों बाद मैंने कल्याण महाराज को बताया कि मैं अस्पताल में कुछ सेवा करना चाहता हूँ। परन्तु वे बार बार कहते, 'करना तो आसान है पर समझना कठिन है।' मैं सोधता: इस में जानने की क्या बात है? मैंने उन्हें बताया, 'अस्पताल में कितना ही काम करने लायक है, वहाँ काम करने वालों का अभाव है। मैं उनकी सहायता के लिये कुछ करना चाहता हूँ। मैं यहाँ खाली बैठने के लिये नहीं आया।' उन्होंने मुझे पूछा, 'यहाँ आने से पहले तुम क्या कर रहे थे?' मैंने कहा कि मैं लेन-देन और हिसाब-किताब का थोड़ा-बहुत काम किया करता था।' उन्होंने कहा, 'यही तो मैं चाहता हूँ, कुछ महीने पहले (अक्तूबर १९३४ में) स्वामी निश्चयानन्द महासमाधि में लीन हो गये। सारा हिसाब-किताब वैसे ही पड़ा है; कुछ नहीं हुआ है। तुम वही काम करो।' और उन्होंने एक चुटकुला सुनाया : 'मानो गारा लगाने का काम करने वाला कोई व्यक्ति स्वर्ग में जाता है - वह वहाँ क्या करेगा? गारा लगायेगा। तुम हिसाब-किताब का काम जानते हो और तुम यहाँ स्वर्ग में आये हो यह भी वैसी बात है!' वे बड़े प्रसन्न थे कि मैं वह कार्य कर सकता था। मैंने जाकर हिसाब देखा। दो या तीन महीनों से कुछ नहीं किया गया था। फिर महाराज ने मुझे वही ढंग अपनाने को कहा जिसे स्वामी निश्चयानन्दजी अपनाते आये थे। निश्चयानन्दजी भी स्वामीजी के समर्पित शिष्य थे, अक्तूबर १९३४ में अपनी महासमाधि से पूर्व तक उन्होंने तीस वर्ष की लम्बी अवधी तक कनखल सेवाश्रम में सेवा की थी। दो ही दिनों में मैंने काम निबटा दिया तथा उन्हें बताया, 'महाराज, काम समाप्त हो गया।' उन्होंने कहा, 'इतने जल्दी?' मैंने कहा, 'केवल थोड़ा- सा ही काम है - अधिक तो नहीं है।' उन्होंने मुझे बेलूड़ मठ भेजने के लिये एक लेखा-विवरण तैयार करने के लिये कहा। यह प्रक्रिया बड़ी रोचक थी। वे कुमार लाहा नामक पेंट (रंग) वाले व्यक्ति द्वारा प्रकाशित कैलेण्डर का मासिक पन्ना फाडते और इसके पीछे मासिक लेखा-विवरण लिख देते। फिर वे उन संख्याओं को बेलूड़ मठ के लेखे-विवरण में भरकर भेज देते। कैलण्डर का वह पन्ना उनकी कार्यालय-प्रति के रूप में रहता। वे इस प्रकार काम चलाते थे।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
-- कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment,
non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by
success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four
outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26