कल्याण महाराज केवल शब्दों से ही दूसरों की सेवा करना नहीं सिखाते थे उनका अपना जीवन भी समर्पण का आदर्श था। वे विशेष ध्यान रखते थे कि प्रत्येक की सेवा उचित प्रकार से हो। इसमें कितना भी समय लगे, कोई बात नहीं। और वे स्वयं भी उनकी सेवा किया करते थे। रात के समय यदि वे अस्पताल में थोड़ी सी आवाज भी सुनते तो धीरे से उठकर जूते पहन वहाँ चले जाते। मेरा कमरा उनके कमरे के साथ ही था। जब भी चलते तो कुत्ता भी उनके साथ चला करता। सीमेन्ट से बने रास्ते पर चलते समय कुत्ते के पैरों से 'टक् टक् टक्' की ध्वनी आती थी, उससे पता चलता था कि वह महाराज के साथ जा रहा है। मैं जल्दी से उठ जाता और उनके साथ चल देता। वे जान जाते थे कि मैं उनके पीछे हूँ, और कहते, 'अमुक कमरे में जाकर अमुक अमुक दवाई लाओ।' मैं वह लाया करता था। वे रोगियों के आराम में बाधा पहुँचाये बिना प्रत्येक का निरीक्षण करते थे, और यदि उन्हें नींद नहीं आयी होती थी तो पूछते कि क्या किस वस्तु की आवश्यकता है। रात के समय दो या तीन बार वे इस प्रकार जाया करते थे। इस बारे में उन्होंने कभी किसी को नहीं बताया। यह काम वे स्वयं ही करते थे। फिर वे लौटकर लेट जाते। इस कारण उनका स्वास्थ्य गिर गया था। वृद्धावस्था में उन्हें मधुमेह की शिकायत हो गयी थी और वे अधिक कार्य नहीं करते थे। फिर भी, आवाज सुनने पर वे धीरे से उठ जाते।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)