‘‘यः पृथिवीं व्यथामनामहं हद्
यः पर्वतान् प्रकुपिताँ अरम्णात्।
यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो
यो द्यामस्तभ्नात् स जनास इन्द्रः।।‘‘
ऋग्वेद में अग्निसूक्त, वरूणसूक्त, विष्णु-सूक्त आदि में जिस सत्ता का
गुणगान हुआ है वही सत्ता ईश्वर है। उसका ग्रहण लोग अनेक प्रकार से करते
हैं। कोई उसे शिव मानता है, कोई शक्ति, कोई ब्रह्म कोई उसे बुद्ध मानता
है, कोई उसे कत्र्ता कोई उसे अर्हत् मानता है। एक को अनेक रूपों में
मानना सबसे बड़ा विभेद है और ऐसा करना वेदों के अर्थ का अनर्थ करना है तथा
यह आर्य धर्म के विरूद्ध है। देवी हो या देव, नर हो या नारी, अच्छा हो
बुरा, चराचर जगत में चेतनता रूप में वह ईश्वर सभी पर अधिष्ठित है। यदि
चेतनता रूप में वह ईश्वर जगत् में व्याप्त न हो तो जगत् का क्रियाकलाप ही
स्थगित हो जाए। जो मनुष्य शुद्ध अन्तःकरण का है, एवं विकारों से रहित है,
उसके अन्दर उस परमानन्दमयी सत्ता का प्रकाश रहता है। इसलिए उस ईश्वर को
सर्वत्र अनुभव करना चाहिए एवं सदाचार और एकनिष्ठा से उसे प्राप्त करने का
प्रयत्न भी करना चाहिए।
लेखक-पं. वेदप्रकाश उपाध्याय, विश्व एकता संदेश 1-15 जून 1994 से साभार,
पृष्ठ 10-11
http://vedquran.blogspot.com/2010/09/several-names-are-for-same-god-in-vedas.html