सुन्दर-निदर्शन-सूत्रम्

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विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 21, 2024, 12:49:27 AM4/21/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तत्त्व-प्रतिपादनपराणि सुन्दरानि निदर्शनान्य् अस्मिन् सूत्रे सङ्गृह्यन्तां रसिकाह्लादाय  ।  तत्रारब्धुम् -

नीलमेघार्यो वेदार्थसङ्ग्रहानुवादे -

जिस प्रकार बालशरीरविशिष्ट रूप से जीवात्मा  
युवशरीरविशिष्ट का उपादान होता हुआ  
विशेष्य रूप से निर्विकार रहता है,  
उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिये ।


संसर्ग के कारण शरीरगत देवत्व और मनुष्यत्व आदि  
आत्मा में उसी प्रकार भासते हैं  

जिस प्रकार जपापुष्पगत लालिमा  
स्फटिकमणि में झलकती है,  

जिस प्रकार काष्ठगत सीधापन और टेढ़ापन  
अग्नि में भासता है ।

वास्तव में  
ये देवत्व आदि धर्म आत्मा में नहीं रहते,  
आत्मा का उन शरीरों से  
उसी प्रकार सम्बन्धमात्र है  
जिस प्रकार वक्रत्व और ऋजुत्व  
अग्नि का धर्म नहीं है,  
अग्नि का उन काष्ठों से सम्बन्धमात्र है ।


--
--
Vishvas /विश्वासः

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 22, 2024, 8:41:31 AM4/22/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इदम् अपि रुचिरम् -

लोक में जिस मनुष्य ने
अग्नि का स्पर्श न किया होगा,
वह कह सकता है कि
लोक में अग्नि को उष्ण कहा जाता है,
किन्तु वह मिथ्या है,
क्योंकि कोई भी पदार्थ उष्ण नहीं हो सकता
जगत् में जितने पदार्थ देखने में आते हैं,
वे सब अनुष्ण हैं,
अर्थात् औष्ण्यरहित हैं,
अग्नि भी एक पदार्थ है,
वह भी अनुष्ण ही है,
उष्णत्व और पदार्थत्व विरुद्ध धर्म हैं ।

इस प्रकार वह मनुष्य
विरोध शंका तबतक करता रहेगा
जबतक उसका अग्नि से स्पर्श न हो ।
अग्नि का स्पर्श होते ही
उसकी सारी शका लुप्त हो जाती है ।
अग्निस्वभाव को जताने वाले
त्वगिन्द्रियरूपी प्रमाण के लगते ही
उसकी विरोधशंका शान्त हो जाती है ।

उसी प्रकार ब्रह्म में भी
विभिन्नस्वभाव और विभिन्न शक्तियों का समावेश मानने में उठने वाली विरोधशंका
जो ब्रह्म को दूसरे पदार्थों के समान मानकर उठती हैं
ब्रह्मतत्त्व को बतलाने वाले उपनिषद् प्रमाण के सामने नहीं टिकती ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 22, 2024, 10:22:24 AM4/22/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
रामानुजमूलम् -

जलादाव् अदृष्टा ऽपि  
तद्-विजातीय-पावके  
भास्वरत्वोष्णतादि-शक्तिर् यथा दृश्यते,  
एवम् एव सर्व-वस्तु-विसजातीये ब्रह्मणि  
सर्व-साम्यं नानुमातुं युक्तम् इति ।

अनुवादांशः - शास्त्रों में उसका स्वरूप स्वभाव शक्ति और रूप
जैसे कहे गये हैं
वैसे उनको मानना ही बुद्धिमत्ता है।
शास्त्रों से ब्रह्म
विचित्र अनन्त शक्तियों से युक्त सिद्ध होता है,
शास्त्रावगत अर्थ को कुतर्कों से काटना
अग्नि में प्रत्यक्षावगत उष्णता को
कुतर्क से काटने के समान है। (उसको इतर पदार्थों के समान मानकर  
मनमाना अनुमान करके  
परब्रह्म के स्वभाव शक्ति और रूपों का खण्डन करना  
नितान्त मूर्खता है ।)

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 23, 2024, 8:36:53 AM4/23/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
ब्रह्म का स्वरूपनिरूपक धर्म ज्ञान है,
जिस प्रकार गौ का गोत्व स्वरूपनिरूपक धर्म है,
गोत्व को समझने पर ही गौ समझी जा सकती है,
उसी प्रकार ज्ञान को समझ करके ही ब्रह्म को समझना पड़ता [[१८०]] है ।


शब्दों में यह स्वभाव देखा गया है कि
स्वरूपनिरूपक धर्मों को बतलाने वाला शब्द
उन धर्मों को बतलाता हुआ
उन धर्मों का आश्रय बनने वाले धर्मी तक को बतलाता है ।
उदाहरण गोत्व को बतलाने वाला गोशब्द
गोत्व को बतलाता हुआ उस गोत्व के आश्रय गोव्यक्ति तक को बतलाता है,
वैसे ही प्रकृत में भी समझना चाहिये ।

ब्रह्म के विषय में प्रयुक्त
ये ज्ञानशब्द और आनन्द शब्द,
ज्ञान और आनन्द को बतलाते हुये
उनका आश्रय बनने वाले ब्रह्म तक का प्रतिपादन करते हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि
ब्रह्म ज्ञानगुणवाला एवं आनन्दगुणवाला है ।
यह एक अर्थ ।

(अद्वैतवादी कहते हैं कि
ब्रह्म केवल ज्ञानानन्दस्वरूप है
वह ज्ञानादि गुणों का आश्रय नहीं ।
अद्वैतियों की यह व्याख्या समीचीन नहीं)




विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 24, 2024, 8:43:24 PM4/24/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इदम् अपरम् (पूर्वपक्षगतम्)

जिस प्रकार जलवाह में
बहने वाले मनुष्य के प्रति
"वह जाओ" इस प्रकार का विधान व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि बहने वाले के प्रति इस प्रकार के विधान की आवश्यकता नहीं,+++(5)+++
इसी प्रकार ईश्वर की प्रेरणा के अनुसार
किसी सत्कर्म में प्रवृत्त हुये मनुष्य के प्रति
" सत्कर्म करो" इस प्रकार का विधान
व्यर्थ ही होगा
क्योंकि वह ईश्वर प्रेरणा से
उस सत्कर्म को करता रहता है,
वहाँ आज्ञा की क्या आवश्यकता है ।
जिस प्रकार जल के वेग से बहने वाले मनुष्य के प्रति
" मत बहो" इस प्रकार का निषेध व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि जलवेग का परतन्त्र बना हुआ वह मनुष्य
इस निषेधाज्ञा का पालन करने में सर्वथा असमर्थ है
उसी प्रकार परमात्मा की प्रेरणा के अनुसार
किसी दुष्कर्म में प्रवृत्त मनुष्य के प्रति
" दुष्कर्म मत करो" इस प्रकार का निषेध भी
व्यर्थ हो जाता है
क्योंकि बलवान् ईश्वर की प्रेरणा का परतन्त्र बना हुआ जीव
इस निषेधाज्ञा का पालन करने में सर्वथा असमर्थ है ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 24, 2024, 8:53:01 PM4/24/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एवम् अपरम् - 

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि राजा का परतन्त्र होने पर भी
प्रजा राजा के विधि और निषेधों के पालने अधिकारी मानी जाती है,
वैसा प्रकृत में क्यों न माना जाय ? उत्तर यह है कि राजा की
प्रजा और ईश्वर की प्रजा में महान् अन्तर है,
वह यह है कि
राजा की प्रजा स्वयं प्रवृत्त होने की क्षमता रखती है,
स्वेच्छा से अपराध करती है,
उसका फलस्वरूप दण्ड भोगने में
उसे राजा का परतन्त्र बनना पड़ता है ।+++(5)+++
प्रकृत में तो सभी प्रवृत्तियों में ईश्वर प्रेरक है,
उनकी प्रेरणा के विना कुछ भी नहीं हो सकता है।
ईश्वर ही जीव से सब कार्य कराता है
सभी प्रवृत्तियों में ईश्वर प्रेरक माने जाते हैं ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 27, 2024, 1:08:06 AM4/27/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इदम् प्रसिद्धम्, तथापि स्वबलाद् एव प्रसिद्धिर् इति - 

भ्रम दो प्रकार का होता है ।

(१) धर्म को विपरीत समझना एक भ्रम है ।
उदाहरण - कामल-रोगवाला पुरुष
शंख को पीला समझता है ।
वह धर्मी शंख को
शंख ही समझता है,
परन्तु धर्म को विपरीत समझता है,
श्वेत को पीत समझता है ।
यह भ्रम रजोगुण से होता है ।

(२) धर्मी को विपरीत समझना
दूसरा भ्रम है ।
उदाहरण
कोई रज्जु को सर्प
एवं शुक्ति को रजत समझता है ।
यहाँ धर्मी रज्जु और शुक्ति
विपरीत समझी जाती है ।
यह भ्रम तमोगुण के कारण होता है ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 29, 2024, 12:45:53 AM4/29/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इदम् अपरम् बन्धुरम् -  

यहाँ पूर्वमीमांसा वर्णित छागपशुन्याय के अनुसार
निर्णय करना चाहिये ।
छागपशुन्याय का विवरण इस प्रकार है कि
वेद में “पशुना यजेत” कहकर
पशु से याग करने के लिये कहा गया है ।
चार पैर वाले प्राणी पशु कहलाते हैं ।
वे पशु नाना प्रकार के हैं,
कुत्ता बिल्ली इत्यादि सभी चार पैर वाले होने के कारण
पशु ही हैं ।
यह पशुशब्द चार पैर वाले
सभी प्राणियों का वाचक होने से
सामान्यशब्द है ।

"छागस्य वपाया" इत्यादि मन्त्र में -
जो याग में विनियुक्त है -
छाग अर्थात् बकरे का वर्णन है । छागशब्द पशुविशेष बकरे का वाचक होने से विशेष्य-शब्द है ।+++(5)+++

किस पशु से याग करें,
इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होने पर
यह उत्तर देना उपयुक्त होगा कि
बकरे से याग करें,
क्योंकि सामान्यवाचक पशु शब्द को
छागशब्दोक्त पशुविशेष बकरे में पर्यवसान करना चाहिये ।
इस प्रकार सामान्य शब्दों को विशेषशब्दोक्त विशेष में पर्यवसान करके
दोनों शब्दों के द्वारा उस विशेष को वाच्य मानना
यही छागपशुन्याय कहलाता है ।

इस न्याय के अनुसार
सामान्यवाचक "सत्" "ब्रह्म" और "आत्मा" इत्यादि शब्दों का
नारायण शब्दोक्त विशेष में पर्यवसान कराकर श्रीमन्नारायण को जगत्कारण मूलतत्त्व मानना चाहिये ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 1, 2024, 2:14:04 AM5/1/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इदम् अपि - 

तद् एतत् परं ब्रह्म
क्वचिद् ब्रह्म-शिवा-दिशब्दाद् अवगतम् इति केवल-ब्रह्म-शिवयोर् न परत्व-प्रसङ्गः -
अस्मिन्न् अनन्य-परे ऽनुवाके
तयोर् इन्द्रादि-तुल्यतया तद्-विभूतित्व-प्रतिपादनात्,

क्वचिद् आकाश-प्राणादि-शब्देन
परं ब्रह्माभिहितम् इति
भूताकाश-प्राणादेर् यथा न परत्वम् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 5, 2024, 8:24:16 AM5/5/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
"घटे भिन्ने घटाकाशो महाकाशेन संसृज्यते।" इति च। 

(तत्र वीरराघवार्यः -  घटाद्युपाध्यपगमेन घटनाशस्य महाकाशसंश्लेषेऽपि स्वरूपभेदसद्भावात् .....अतः संश्लेषदशायामपि घटाकाशमहाकाशयोः प्रदेशभेदोऽस्त्येव उपाध्यपगमेन समानाकारत्वमात्राभिप्रायक एवायं दृष्टांत इत्यवगंतव्यम् ॥)

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 6, 2024, 10:40:43 PM5/6/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
लोक में देखा गया है कि
शरीर आत्मा में स्वभाव व्यवस्थित रहते हैं,
शरीर का स्वभाव
आत्मा में नहीं पहुँचता
तथा आत्मा का स्वभाव
शरीर में नहीं पहुँचता । +++(5)+++

गौरवर्ण किसी शरीर का स्वभाव बना है,
वह शरीर में ही रहता है,
आत्मा में नहीं पहुँचता ।+++(5)+++
ज्ञान सुख और दुःख इत्यादि
आत्मा के धर्म हैं,
ये आत्मा में ही रहते हैं,
शरीर के धर्म नहीं होते हैं ।+++(5)+++
ऐसे ही विकार और दोष इत्यादि
उस चेतनाचेतन प्रपञ्च का
जो परमात्मा का शरीर है— धर्म हैं,
यह प्रपञ्च में ही रहने वाला है,
परमात्मा का स्पर्श नहीं करता ।

[[२४४]]
निर्विकारस्व निर्दोषत्व और कल्याणगुण
ये सब अन्तरात्मा परब्रह्म का स्वभाव है।
यह स्वभाव परब्रह्म में रहता है,
शरीर में नहीं पहुँचता ।

इस विवेचन से सिद्ध होता है कि
विश्व-शरीर-धारी होने से
परमात्मा जगत कहलाते हैं
तो भी परमात्मा और जगत के असाधारण स्वभाव व्यवस्थित रहते हैं,
एक का स्वभाव दूसरे में नहीं पहुँचता
इसलिये दोष प्रपञ्च में रह जाते हैं,
परमात्मा तक दोष नहीं पहुँचता,
वे निर्दोष रहते हैं ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 9, 2024, 5:58:45 AM5/9/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
> "स्थान-विशेषात् प्रकाशादिवत्" ।

अर्थात्

ब्रह्म स्वतः अपरिच्छिन्न होने पर
वाग् इत्यादि स्थान-विशेष-रूपी उपाधियों के संबन्ध के अनुसार
परिच्छिन्न रूप में
उसका अनुसन्धान हो सकता है

जिस प्रकार प्रकाश और आकाश इत्यादि पदार्थ
अत्यन्त विस्तृत होने पर भी
वे गवाक्ष के छिद्र
और घट आदि स्थानों के अनुसार
परिच्छन्न समझे जाते हैं,
गवाक्ष के छिद्र से आने वाला प्रकाश
परिच्छिन्न समझा जाता है
तथा घट आदि उपाधियों से संबद्ध आकाश परिच्छिन्न प्रतीत होता है ।
इसी प्रकार स्वतः अपरिच्छिन्न ब्रह्म भी
वाग् आदि उपाधि संबन्ध से
परिच्छिन्न प्रतीत होता है ।
ब्रह्म का अपरिच्छिन्नत्व स्वाभाविक धर्म है
परिच्छिन्नत्व औपाधिक धर्म है ।
स्वाभाविक धर्म और औपाधिक धर्म में विरोध नहीं होता है ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 11, 2024, 12:08:40 PM5/11/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तत्र प्रतिकूलसंबन्धनिवृत्तिश् चानुकूलसंबन्धनिवृत्तिश् च स्वरूपेणावस्थितिर् एव । इति रामानुजवचने नीलमेघार्यः -

सुख भोगते समय जीव को
अनुकूल संबन्ध होता है ।
दुःख भोगते समय
जीव को प्रतिकूल संबन्ध होता है,
सुख दुःख रहित निद्रा आदि दशा में
जीव की स्वरूप में स्थिति होती है ।

निद्रा आदि अवस्था में जीव को
न अनुकूल संबन्ध होता है
न प्रतिकूल संबन्ध होता है,
उस समय चेतन स्वरूप में अवस्थित रहता है ।
यदि सुख निवृत्ति और दुःख को
एक पदार्थ मान लिया जाय
तथा दुःखनिवृत्ति और सुख को एक पदार्थ मान लिया जाय
तो निद्रा आदि अवस्था में
जीव को सुख दुःख मानना पड़ेगा

क्योंकि उस समय सुख निवृत्ति होने के कारण
दुःख मानना होगा

तथा दुःख निवृत्ति होने के कारण
सुख मानना होगा ।+++(5)+++

ऐसा मानना तो उचित नहीं है
क्योंकि निद्रा समय में
जीव सुख दुःख रहित होकर
स्वरूप में अवस्थित रहता है ।
अतः यही सिद्धान्त मानना होगा कि
दुःख निवृत्ति और सुख
भिन्न २ पदार्थ हैं
तथा सुख निवृत्ति और दुःख
भिन्न २ पदार्थ हैं।
तीसरी अवस्था में
अर्थात स्वरूप में अवस्थित रहते समय
अनुकूल संबन्ध और प्रतिकूल संबन्ध
दोनों निवृत्त हो जाते हैं ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 19, 2024, 10:49:24 PM5/19/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वेङ्कटनाथार्यः -


(कार्यकारण-)द्रव्याभेदे ऽप्य् अवस्थान्तरत इह तु ते पत्र-(तत्-कार्यभूत-कर्ण-योग्य)ताटङ्कवत् स्युः

(comparison of infinities)
व्यक्त्य्-आनन्त्येऽपि जात्योः पर-तद्-इतरता पक्ष-मासाद्य्-अनन्तम्

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 27, 2024, 11:44:40 PM5/27/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
साङ्ख्यकारिका-व्याख्यायां वाचस्पतिर् अन्तःकरणवृत्तिक्रमभेदं वदति -

यदा सन्तमसान्धकारे  
विद्युत्-सम्पात-मात्राद्  
व्याघ्रम् अभिमुखम् अतिसन्निहितं पश्यति,  
तदा खल्व् अस्यालोचन-सङ्कल्पाभिमानाध्यवसाया  
युगपद् एव प्रादुर्-भवन्ति,  
यतस् तत उत्प्लुत्य  
तत्-स्थानाद् एक-पदे ऽपसरति ।


‘‘क्रमशश्च’’–  
यदा मन्दालोके प्रथमन् तावद् वस्तु-मात्रं सम्मुग्धम् आलोचयति,  
अथ प्रणिहित-मनाः  
कर्णान्ताकृष्ट--स-शर--शिञ्जित-मण्डली-कृत-कोदण्डः  
प्रचण्डतरः पाटच्-चरो ऽयम् इति निश्चिनोति  
अथ च ‘माम् प्रत्य् एति’ इत्य् अभिमन्यते,  
अथाऽध्यवस्यति— ‘अपसरामीतः स्थानात्’ इति ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 29, 2024, 3:29:51 AM5/29/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
> ननु उन्मिषितमात्रं चक्षुश् चन्द्रं गमयति ।
न चैकस्मिन् क्षणे
तावान् देशो वृत्त्या लङ्घयितुं क्षमः ।
क्रमे तु प्रतिपरमाण्व्-अवच्छेदं विलम्ब्य गमनात्
प्रतीतिर् अपि विलम्बेत,
दूरासन्न-ग्रहण-काल-तारतम्यं च स्यात् ।

मैवम् ;
उदयत्य् एव सवितरि
सकल-दिग्-व्यापिन्यां प्रभायाम् इव
इन्द्रिय-वृत्तेस् तादृश-वेगातिशयस्याविस्मयनीयतया
पद्म-पत्र-शत-वेधन-रीत्या यौगपद्याभिमानोपपत्तेः ।


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 29, 2024, 6:03:50 AM5/29/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
कथं कानिचन वस्तून्य् आलोकं न बाधन्तय् इत्यत्र -

विरल-पट-नयाद् अम्बु-काचादिर् अच्छः ।

> स-रन्ध्रत्वे स्फटिकादिषु सलिल-गलनादि-प्रसक्तिः स्याद्

इति चेन् न ;
आलोक-प्रकाश-वत्सु सर्वेषु
सलिल-प्रवेशस्य त्वया दुर्वचत्वात् ।
अ-च्छिद्र-परुवक+++(=पारदर्शि-करण्डक)+++-संपुट-स्थगित-कर्पूर-कस्तूरिकादि-गन्ध-निस्सरण-न्यायाच् च
द्रव्य-विशेष-प्रवेशानुगुण-सन्निवेशवत्त्वं काचादेर् अङ्गीकार्यम् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 30, 2024, 7:03:36 AM5/30/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
शठकोप-प्रथमपद्य-व्याख्याने भगवन्न्-नित्यमुक्त-भेदं वदति -

(अधिपति)
अवर्गळुक्क् उम्

“तॊट्टु-क्कॊळ्, तॊट्टु-क्कॊळ्”

ऎन्न-वेण्डुम् पडि
आनैक्कुक् कुदिरै वैत्तु
अव्व्-अरुग् आय् इरुक्कुम् ऎन्नुदल् (अधिको पतिर् इति व्युत्पत्त्या);
(अथवा “ऽधिपतिर्” इति) स्वामि-वाचकम् ऎन्नुदल्.



विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 30, 2024, 9:32:56 PM5/30/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
शब्द-ग्रहणे दिग्ग्रहणम् अपि कथम् इति वेङ्कटनाथर्यः -

यथा मयूर-वीणादेः  
शब्दोऽयम् इति गृह्यते ।  
तथा प्राच्यादि-जातो ऽयम्  
इति लिङ्गात् तथा-विधात् ॥ 

तत्र यद्यपि शब्दस्य  
विशेषः कोऽपि दुर्वचः ।  
तथाऽपि विदितस् तैस् तैर्  
लिङ्गं स्यात् सम्मतेष्व् इव ॥ 

 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jul 13, 2024, 8:24:43 PM7/13/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अवश्यापेक्षितङ्गळान अर्थङ्गळैयॆल्लाम् सिऱिय कण्णाडि पॆरिय उरुक्कळैक् काट्टुमाप्पोले सुरुङ्गत् तॆळिविक्कुम् तिरुमन्त्रम्

thoughts that we should bear in mind at that time  
are concisely disclosed in the Tirumantra
as in a little mirror reflecting bigger forms.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jul 13, 2024, 10:51:52 PM7/13/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः


Since Bhagavān is pleased with those who serve His devotees (Bhāgavatas),
it is implicitly stated in the word namas
that we depend also on Bhāgavatas
and are subject to their direction and control.+++(5)+++

Illustrations of these may be found respectively
in the lives of the devotees, Bharata and Satrughna
(the former of whom delighted in obeying and serving Rāma
and the latter in obeying and serving Bharata).


Dado que Bhagavān está satisfecho  
con aquellos que sirven a sus devotos (Bhāgavatas),  
se declara implícitamente en la palabra namas  
que dependemos también de bhāgavatas  
y están sujetos a su dirección y control.

Se pueden encontrar ilustraciones de estos respectivamente  
En la vida de los devotos, Bharata y Satrughna  
(El primero de los cuales se deleitó en obedecer y servir a Rāma  
y este último en obedecer y servir a Bharata).

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 13, 2024, 5:23:18 AM8/13/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अवर्गळ् कॊडुत्त जुगुप्सावह-क्षुद्र-पुरुषार्थङ्गळाल् ए
(मलादौ) कृमिगळैप् पोल् ए
कृतार्थर् आग मयक्किय्(=तामयित्वा) उम्,(5)

The jīva is deluded into considering himself as greatly benefited
by the mean and gruesome enjoyments
afforded by these deities in the same way
as worms find pleasure in dirt and filth.(5)

El Jīva se engaña a considerarse a sí mismo
como se beneficia enormemente
por los disfraces malos y horribles
Proporcionado por estas deidades de la misma manera
que los gusanos encuentran placer
en la suciedad y la inmundicia.(5)


अभिषेकत्तुक्कु नाळ्-इट्ट राज-कुमारनुक्कुच्
चिऱैयिल्(=कारागारतः) ए (दुग्धादि) ऎडुत्तुक् कै-नीट्टिन चेटिमार् पक्कलिल् ए
कण्-णोट्टम् उण्डाम् आप्-पोल् ए (5)

Their (temporary) lapse from the highest aim or goal of life (namely, the enjoyment of the bliss of Brahman)
is like that of a prince,
whose coronation day has been already fixed,
casting eyes on the servant maids
who attended on him while in prison.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 13, 2024, 5:27:34 AM8/13/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
“तिण्णम्(=दृढम्) अऴुन्दक्(=निपीड्य) कट्टिप्
पल-सॆय्विनै(=कर्म)-वन्(=बलवत्)-कयिट्राल्(=कयिराल्)
(शरीराख्य-)पुण्णै(=व्रणम्) (चर्म-रूपेण) मऱैय वरिन्द्(=वलयित्वा) ऎन्नैप् पोर-वैत्ताय् पुऱम्(=बहिः) ए”(5) (तिरुवाय्मॊऴि 5-1-5)

“With the strong ropes of my sins,
Thou hast bound me tightly with the body,
covered the sores within the body (like flesh, fat and blood) with the skin
and let me walk away from Thee.”


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 17, 2024, 9:22:32 PM8/17/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
परीवाहरूपकम् अत्र -

इप्-पडिय् इरुक्किऱ ईश्वरन्  
तन् _आनन्दत्तुक्कुप् परीवाहम्_ आगप् पण्णुम् व्यापारङ्गळ्  
स-कल--जगत्-सृष्टि-स्थिति-संहार--मोक्ष-प्रदत्वादिगळ्.

(एवम्-भूतेनेश्वरेण  
स्वानन्द-परीवाहतया क्रियमाणा व्यापाराः  
स-कल-जगत्-सृष्टि-स्थिति-संहार-मोक्ष-प्रदत्वादयः ॥ )

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 18, 2024, 10:46:57 AM8/18/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वेङ्कटनाथार्यः (अनुवादेन) -

अत्यन्तानुपयुक्तेष्विव स्वल्पोपयुक्तेषु अभिनिवेशोऽपि न कार्यः । 
अपरिच्छेद्ये समुद्रे  
नाविकाः मार्ग-प्रभृतिकम् अवश्य-ज्ञेयम् अर्थं  
यथा विशदं जानन्ति,  
तथा ऽत्रैतावद् विवेचनम् अवश्यापेक्षितम् ॥  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 28, 2024, 2:14:20 AM8/28/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
जिस प्रकार मंगलार्थ जलाये जाने पर भी  
दीप की अर्थ प्रकाशन शक्ति कुण्ठित नहीं होती,
उसी प्रकार किसी भी कर्म में विनियुक्त होने पर भी
मन्त्र की अर्थ प्रकाशन शक्ति कुण्ठित नही होती ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 1, 2024, 11:53:44 AM9/1/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
नीलमेघार्यः - 

[[३२२]]  
शरीर में एक पिण्ड है
जिसमें मनुष्यत्व इत्यादि जाति और गुण इत्यादि रहते हैं ।
यह शरीर पिण्ड स्वतन्त्र प्रतीत होता है ।
यह प्रतीति भ्रम है
क्योंकि शरीर भी ईश्वर का परतन्त्र है।
किन्तु शरीर को अपने अधीन रखने वाले ईश्वर दिखाई नहीं देते
इसलिये शरीर उसी प्रकार स्वतन्त्र प्रतीत होता है -

जिस प्रकार वायु बहकर आने वाला सुगन्ध
पुष्पकणों का आश्रय लेकर आने पर भी
पुष्पकण न दिखाई देने के कारण
स्वतन्त्र प्रतीत होता है ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 1, 2024, 11:58:32 AM9/1/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
रामानुजार्यः  - 

आत्माभिमानो यादृशस्तदनुगुणैव पुरुषार्थप्रतीतिः । 
सिंह-व्याघ्र-वराह-  
मनुष्य-यक्ष-रक्षः-  
पिशाच-देव-दानव-  
स्त्री-पुंस-व्यवस्थित-+आत्माभिमानानां  
सुखानि व्यवस्थितानि । 
तानि च परस्परविरुद्धानि । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 1, 2024, 12:08:00 PM9/1/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
"अन्नं भोज्यं मनुष्याणाम्  
अमृतं तु दिवौकसाम् ।
श्व-पशू विट्-तृण-हारी
सन्तो दास्यैक-जीवनाः ॥"

स्वातन्त्र्य स्वरूपतः सुख का कारण नहीं,  
पारतन्त्र्य स्वरूपतः दुःख का कारण नहीं।  
यदि स्वरूपतः सुख दुःख का कारण होते  
तो बन में चीरे हुये वृक्ष पर ठोंकी गई कील को  
उखाड़ने वाले उस परमस्वतन्त्र वानर को सुख क्यों न हुआ ?
अपने को परतन्त्र मानने वाले गुरुभक्त विद्यार्थी, पितृभक्त पुत्र, पति-शुश्रूषा-परायण पतिव्रता को क्यों सुख होता है ?  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 5, 2024, 6:19:49 AM9/5/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वेङ्कटनाथार्यः

> ननु भगवदर्चावतारेषु दीप-शिखाकारोर्ध्व-पुण्ड्रस्य दर्शनात्  
> "यच्-छीलस् स्वामी"ति न्यायेन  
> भागवतैर् अपि तथैवानुष्ठेयम्

इति चेन् न, वचन-विरोधे न्यायस्यानवतारात् ।
अन्यथा भगवद्-अनुष्ठित-गोप-कन्योन्मादन--  
स्व-कुल-विनाशन--बुद्ध-समय-प्रवर्तनादेर् अपि प्रसङ्गात् । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 9, 2024, 6:46:38 AM9/9/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
स एवानुवादेन -

इमानि देवतान्तराणि भगवच्-छरीरत्वेनाबुध्वा आश्रयताम्  
चार्वाकेण सता केनचित् सेवकेन
राजशरीरे चन्दनादौ प्रयुक्ते सति,
राजशरीरे यथाऽऽत्मा प्रीतो भवति
तथा वस्तुगत्या सर्वेश्वरे आराध्ये सत्यपि Those who worship these other deities  
without knowing that they are the bodies of Bhagavān  
are like a follower of Charvaka (a materialist who believes that there is nothing other than the body called the soul)  
who anoints the body of the king, his master,  
without knowing that his master has a soul.  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 10, 2024, 9:24:45 AM9/10/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
"ऎम्बॆरुमानुण्डुमिऴ्न्द वॆच्चिल् तेवरल्लादार् तामुळरे" (पॆरियदिरुमॊऴि 11-6-2.)

“The gods[^f231] are only the food eaten by Bhagavān and vomited afterwards,  
(eaten during pralaya and vomited after creation);  
are there any (gods) who are not of the nature of this vomit?" 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 14, 2024, 10:34:53 AM9/14/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
आचार्य-निष्ठ-प्रपत्तौ स एव - 
अन्धोऽनन्ध-ग्रहण-वशगो **याति** रङ्गेश यद्वत्  
पङ्गुर् नौका-कुहर-निहितो **नीयते** नाविकेन ।
**भुङ्क्ते** भोगान् अ-विदित-नृपः सेवकस्यार्भकादिः
त्वत्-सम्प्राप्तौ **प्रभवति** तथा देशिको मे दयालुः ॥ २१॥
> " The blind man walks on being led by one who is not blind;  
> the lame man is taken (across the stream) by the boatman, being placed within the boat;  
> the children of the king's servants enjoy the pleasures (of the palace), although they do not know the king.  
> So also my ācārya , who is compassionate, is capable of making me attain Thee, O Lord of Śrīraṅgam".

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 14, 2024, 10:35:59 AM9/14/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
(अयं दोषेण हास्य-सूत्रे प्रेषितः पुरा )

विकलभरसमर्पणम् अपि योग्ये फलतीति  स एव - 

पद-वाक्यादि-वृत्तान्तानभिज्ञेन बालेन जातु,
“भवति भिक्षां देहि” इत्युक्ते सति
आढ्यानां सतां गृहेषु तदैवापेक्षित-सिद्धिर् यथा भवति —

तथा,

(परैर्) ग्रहणेऽपि न्यूनता-हीनो
ऽपेक्षितं सर्वं ददत् "

इत्य्-उक्त–स्व-भावस्य परिपूर्ण-परमोदारस्य (ब्रह्मणो) विषये
ऽस्याः उक्तेर् अपि फलाविनाभावो भवति ।


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 15, 2024, 8:04:19 AM9/15/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
"ब्रह्मास्त्रवत् स्व-फल-विषये उपायान्तर-प्रयोगम् अ-सहमानां प्रपत्तिं"

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 23, 2024, 9:11:06 PM9/23/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तथा च ऒरुवनुक्कुत् तान् भगवच्-छेषम् ऎण्ड्रु ज्ञानम् उण्ड् आय्

“नं शेषिय् आन अदावदु स्वामिय् आन भगवानुक्कु ऎल्लां शेषम्”
ऎन्गिऱ साक्षात्-कारम् उण्डानाल्
मुन्बु प्रतिकूलङ्गळ् आन वस्तुक्कळ् उं
सिऱैश्-शालैयिल् इरुन्द ऒरु राजकुमारनुक्कु प्रतिकूलम् आय् इरुन्द
सिऱैक्-कूडम्(=भवनम्) ए राजा अवनै सिऱैयिनिण्ड्रुं विडुवित्तु
यौवराज्यत्तैय् उं कॊडुत्तु
तनक्कु दासन् आक्किनव् अळविल् ए

राज्यत्तिल् उळ्ळ (कारागार-सहित-) वस्तुक्कळ् ऎल्लां
नं स्वामिय् आन राजावुक्कु शेष-भूतम्

ऎण्ड्रु ज्ञानम् पिऱन्दव् आऱ्(=फलम्) ए अनुकूलम् आगुम् आप्-पोल् ए
अनुकूलङ्गळ् आगुम् ऎण्ड्रु करुत्तु.(5)

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Sep 26, 2024, 6:15:43 AM9/26/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
भक्तौ स्मृतिर् दृश्यतुल्यताम् आपन्ना कथं स्यादिति - 

रामत्रस्तनान मारीचन् अन्द भयत्ताले सर्वदा रामस्मरणम् पण्णियदाल्  
अन्द स्मरणम् प्रत्यक्षतुल्यमान वैशद्यत्तै उडैत्तानद् आय्क्-कॊण्डु,  
अवनै, रामनै स्मरिक्किऱेन् ऎण्ड्रु व्यवहरिक्कुम् बडि पण्णामल्

> ‘‘वृक्षे वृक्षे च पश्यामि  
> चीरकृष्णाजिनाम्बरम् ।  
> गृहीतधनुषं रामं  
> पाशहस्तमिवान्तकम्’’

ऎण्ड्रु व्यवहरिक्कुम् पडि पण्णिट्रिऱे.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Oct 4, 2024, 9:49:58 PM10/4/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
श्रीयामुनः -

यदि च तद् +++(परिमित-वस्तु)+++ एव सातिशयम् असंभावनीय-पर-प्रकर्षं परिनितिष्ठेत्,  
हन्तः! तर्ह्य् एकैकेन घट-मणिकादिना ब्रह्माण्डोदर-विवरम् आपूरितम्
इति तत्-प्रतिहततयेतर-भाव-भङ्ग-प्रसङ्गः

[[5]]
And suppose a finite quantity could assume inconceivable infinitude:
why, then any single jar or pitcher could fill up the entire space within the Egg of Brahma,
so that all other things would be pushed out and perish accordingly!

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Oct 5, 2024, 1:27:21 AM10/5/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
**न** तावत् पौरुषेयेण  
वचसा तस्य **सम्भवाः** ।  
विप्रलब्धुम् अपि **ब्रूयुर्**  
मृषैव पुरुषाः यतः ॥  

अद्यत्वेऽपि हि **दृश्यन्ते**
केचिद् आगमिकच्-छलात् ।  
अनागमिकम् एवार्थं  
**व्याचक्षाणा** विचक्षणाः ॥

For even today, we find philosophers  
who pretend to be scriptural  
and yet expound an interpretation which is wholly unscriptural.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Oct 5, 2024, 3:41:38 AM10/5/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तुल्याक्षेप-समाधाने  
पञ्च-रात्र--मनु-स्मृती ।  
प्रमाणम् अप्रमाणं वा  
स्यातां भेदो न युक्तिमान् ॥

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Oct 5, 2024, 8:17:21 AM10/5/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
 न खलु तुल्यमूलयोरष्टकाचमनस्मरणयोर्मिथोमूलमूलिभावः ।

परस्परमपेक्षेते तुल्यकक्ष्ये न हि स्मृती ।
पञ्चरात्रश्रुती तद्वन्नापेक्षते परस्परम् ॥
वेदमूलत्वहानेन पञ्चरात्रेऽवसीदति ।
कुतस्तन्मूलताहानादागमो नावसीदति ॥

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Oct 15, 2024, 12:48:13 AM10/15/24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्तते
अपि तु - निन्दिताद् इतरत् प्रशंसितुं -

यथैतरेयक-ब्राह्मणे -

प्रातः प्रातर् अनृतं ते वदन्ति

इत्य्-अनुदित-होम-निन्दा उदित-होम-प्रशंसार्थेति गम्यते ।(5)

॰॰॰

तत्र न तावद् उक्तिमात्र-विरुद्धोऽयं पक्षः,
न हि “पञ्च-रात्र-शास्त्रं प्रमाणम्” इति प्रतिज्ञा-वचनं
स्वार्थं व्याहन्ति -
यथा “यावज्-जीवम् अहं मौनी” इति,

नापि धर्मोक्ति-विरोधः,
 हि प्रामाण्यं
पञ्च-रात्रोद्देशेन विधीयमानं पक्षं प्रतिक्षिपति
सर्ववाक्यानाम् इव मिथ्यात्व-वचनम्,

नापि धर्म्य्-उक्ति-विरोधः,
सत्य् अपि धर्मिणि,
धर्मान्वयस्याऽविरुद्धत्वात्।
न हि जननीत्वम् इव वन्ध्यात्वेन
पञ्च-रात्र-शास्त्रत्वं प्रामाण्येन विरुद्धम्, (प्. ३२)


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 8, 2025, 9:33:14 AMJan 8
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वेङ्कटनाथार्यः (अनुवादे)

पर-तीरे ऽभिमत-देश-जिगमिषया नौकां प्रतीक्षमाणाः
सत्यां त्यागेच्छायां त्यक्तुम् अशक्ये पण-बन्ध-द्यूते अ-प्रवृत्य 
अपेक्षितावसरे समापनार्हे विहार-द्यूते प्रवृत्ताव् अपि
यथा-शास्त्रं स्थानानतिक्रमेण (देवन-)साधनानि (अक्षान्) यथा निक्षिपति,
तथा (स्वयम्-प्रयोजनतया) आज्ञा-ऽनुज्ञाभिर् दास्यं स्वीकुर्वाणस्य
शासितुः शासनानुरूपस्य काल-विशेषादि-नियतस्य कैङ्कर्यस्य 
पित्त-परिहारार्थ–क्षीर-सेवक-रीतिं विहाय
अ-यत्न-लब्धेनौषधेनाविलम्बितम् आरोग्यं प्राप्तवन्तो
यथा क्षीरं परिप्लाय भुञ्जते,
तथा प्रीत्या(→स्वयम्-प्रयोजनतया) ऽनुष्ठानम्,

When people are waiting for the boat in order (to cross the stream) to go to a place of their desire,
some of them may avoid playing chess or other game with stakes,
as it could not be stopped whenever desired

but may be engaged in playing the game without any stakes
so that they might be in a position to give up the game (when the boat has come).

Though they play merely for the enjoyment (and not for money),
they move the pawns (on the board) in strict accordance with the rules of the game.

In the same way (though the prapanna does not expect any profit out of it)
he performs gladly the rites commanded and permitted by the Supreme Ruler,
which are really services to the Lord,
in accordance with the specific time and place at which they are ordained for performance.
(In performing them), he should resemble
not those who drink milk for relief from excess of pitta bile,
but like those who have got well easily and quickly with the help of a medicine
and who drink milk with pleasure (not as a cure for disease ).

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 9, 2025, 10:14:38 AMJan 9
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
> ‘‘माङ्गल्य-सूत्र-वस्त्राणि
> संरक्षति यथा वधूः ।
> तथा प्रपन्नश् शास्त्रीय-
> पति-कैङ्कर्य-पद्धतिम्’’


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 11, 2025, 10:59:45 AMJan 11
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
प्रणयिनम् इव प्राप्तं (←)पश्चात् प्रिया स्व-समन्वितं
महति मुहुर् आमृष्टे दृष्ट्वा (अष्टाक्षर-)मनौ मणि-दर्पणे ।
प्रपदन-धनास् सन्तश् शुद्धैः प्रभुं परिभुञ्जते
प्रसृमर(=फुल्लन्)–महामोद(=मल्लिका)-स्मेर-प्रसून-समैः क्रमैः ॥ ३५ ॥(5)

Like a beloved wife who, in a big jewelled mirror, well-polished,
sees her loving husband by the side of her own image -
her loving husband who has come behind her and stands beside her,
and is at once transported into the ecstasy of love
and enjoys his presence with the scattering of flowers that spread their fragrance all round -
(like that beloved wife ) good men, whose wealth consists in their prapatti, see the Supreme lord in the great mantra (Tiru mantra)
which has frequently been meditated upon
and enjoy Him with loving service similar to fragrant flowers.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 14, 2025, 8:33:23 PMJan 14
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
राज्ञो राजकुमारोपलालनस्येव
भागवत-कैङ्कर्यस्य भगवतोऽ[त्यन्ता]भिमतत्व-सिद्धेः
शेष-भूतेनानेन क्रियमाणेषु किञ्चित्-कारेषु
भागवत-कैङ्कर्यं **प्रधानं सिद्धम्**

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 19, 2025, 11:05:41 AMJan 19
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तद् एवं भगवच्-छास्त्रे  
समाराधकादीनां सर्वेषाम् अपि  
चक्रादि-लाञ्छन-धारणस्यावश्य-कर्तव्यतया ऽभिहितत्वात्  
प्रमाणान्तर-गवेषणं चापवरक-निहित-हिरण्य-निधेः पुरुषस्य  
कोद्रवाद्य्-अर्थं कृपण-जन-याचनम्  
इति परिहसन्ति सन्तः ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jan 31, 2025, 11:23:31 PMJan 31
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वेङ्कटनाथार्यो ऽनुवादे - 

मूल-निक्षिप्त-हिङ्गुकानां वृक्षाणां  
स्थलादि-विशेषैः शोषणस्य काल-तारतम्यं भवतीत्य् एतावद् एव  
अत्राप्य् एषां संसारस्य निःशेष-निवृत्त्य्-उत्पतौ विलम्बाविलम्ब-वैषम्यम् एव भवति ।

When asafoetida is applied to the root of a tree for making it wither,
the tree is sure to wither sooner or later,
according to the nature of the soil and other conditions;
(but there is no doubt that it will wither;
it will do so, perhaps after a little more time).

so also there will be difference only with regard to the delay
in the complete release from saṁsāra. 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Feb 1, 2025, 4:33:10 AMFeb 1
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
तत्रापि तासां
'श्रीहनूमान् हनिष्यति' इति **भये जाते**
पश्चाद् **वध-निवारणस्य कृतत्वात्**
असिम् **उद्यम्य त्याग** इव
**दण्ड-लेशः क्षमा** च सिद्धौ ॥

Even here, the Rākṣasis were afraid that Hanuman was about to punish them severely and were afterwards saved from it.  

So there was, as in the raising of the sword (to strike a person), a slight punishment (fear) and (then ) forgiveness.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 21, 2025, 1:49:06 AMMar 21
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
क्रीडाशुकम् क्षीरास्वादत्ताले उगन्दाल् अदैक्कण्डु राजाव् उगक्कुमाप् पोले,
निषद्वर-दीर्घिका-प्रायम् आऩ हृदय-कुहरत्तिल् निऩ्ऱुम् इवऩै वॆळिप् पडुत्ति
स्व-सायुज्यान्तम् कॊडुत्त पिऱगु
अवऩ् सन्तोषित्ताल्
अदऩाल् मुऩ्ऩ् इरुन्द आनन्दत्तैक् काट्टिलुम् अतिशयित-निरतिशयानन्दऩ् आय् इरुक्कुम् ऎऩ्गै।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 21, 2025, 6:05:36 AMMar 21
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः

अतः, कोसल-जन-पद स्थित-जन्तुभ्य इव
कुमारेण सह तिरश्चे शुकाय क्षीर-प्रदान-न्यायेन +++(5)+++
तार-तम्यम् अनवलोकयन् ददीत ।


so He grants (their request ) without any consideration of their status or rank as ( ŚrīRāma did) in the case of all creatures in Kosala
and in the same way as a man feeds his parrot and his child alike with milk.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 22, 2025, 9:44:48 PMMar 22
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
राज-महिष्या राजा भोग्यश् चेत्,
तद्-अभिमतानां तदीय-भोग-साघनी-भूतानां भोग-स्थान--भोगोपकरणादीनाम् अपि
एतां प्रत्य् **अनुकूलत्वं** यथा,

तथा अत्रापि भगवत्-स्वरूपानुबन्धिनः
सर्वेषां भोग्यत्वस्य **न क्षतिः**


If the king is the queen's joy,  
then all objects and instruments of his enjoyment  
as well as the places where he finds delight are alike, objects of joy to her.  
Similarly the mukta finds joy in all that pertains to the Lord.

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 23, 2025, 7:16:34 AMMar 23
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
पित्तोपहतं प्रति प्रतिकूल-भूतस्य क्षीरस्य
पित्त-शमनानन्तरम् आनुकूल्यवत्

What appears disagreeable to the man suffering from (excess of) bile  
is felt as agreeable when the bile has decreased.  

[[२७४]]  
सार्वभौमस्य पितुः कारा-गृहस्य कारा-गृहस्थ राज-कूमारं प्रति  
तदानीं प्रतिकूल-भूतस्य सतः  

राज्ञि कारा-गृहान् निर्गमय्य  
प्रीत्या तुल्यभोगतया स्थापितवति सति  

कारा-गृह-संस्थानस्याविनष्टस्यैक सतः पितृ-विभूतित्व-बुद्ध्या ऽऽनुकूल्यवच् च,

Again when the prince is in the prison house it is disagreeable.  
But when the emperor is pleased to set him free  
and to place him by his own side to enjoy like-pleasures,  
the prison house may appear agreeable  
as a symbol of his father's glory,  
although it has not undergone any change.

> ‘‘यस् त्वया सह स स्वर्गो  
> निरयो यस् त्वया विना’’  
> (रामायणम् अयोध्या-काण्डम् ३०-१८) +++(5)+++

इति

It is said in the Rāmāyana : --

> "To be with you is mokṣa for me;  
> to be without you is hell to me;"



विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 24, 2025, 4:08:06 AMMar 24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एतस्य फलस्य "शुनाम् इव पुरोडाशः" (पाद्म-संहिता चर्या-पादः १२-८३) इति रीत्या
जन्म-वृत्तादिभिर् वस्तुतः स्वयम् अनार्ह इति ज्ञातवतः कस्यचित् He knows that, by birth, conduct and the like,  
he is unfit to enjoy that fruit,  
like a dog which is unfit to eat the offering made to the gods,  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 24, 2025, 4:13:15 AMMar 24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
Embar has, therefore, illustrated the difficulty of having such faith by saying that  
to expect this man who dreads bhaktiyoga  
to have this supreme faith (regarding the efficacy of prapatti) is  

> “to ask a man who pleads inability to pay a bundle of sesamum stalks which would yield a kalam of (sesame) seeds  
> to pay instead a kalam of oil".

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Mar 24, 2025, 7:46:43 AMMar 24
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
सहस्रे शतादिवत्
सालोक्यादीनां सायुज्ये अन्तर्-भूतत्वात्
तत्र नैकस्यापि वैषम्यं भवति ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 2, 2025, 7:09:48 AMApr 2
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वरदार्यः -

अत्र तैः सविशेषस्य ब्रह्मणः मिथ्यात्वम् उक्त्वा  
"तद् एवापरम्" इति  
मिथ्या सत्यञ् चेति द्वयं ब्रह्म क्रोडीकृत्य  
ब्रह्मणो द्वैविध्यञ् च उक्तम् ।  
तद् युक्तं वा?  
यथा  

> सर्पो द्विविधः -  
एकः वल्मीक-सर्पः, अपरस् तु रज्जु-सर्पः

इति क्रोडी कृत्य सर्प-द्वैविध्य-कथनवन् न भवति वा ?  
भवतु इति चेद् दण्ड-सर्पः, भू-विदलन-सर्पः इत्यादि - अनन्तसर्पाः भवेयुः ।  
को वा मतिमान्  
एतादृशम् एकं मिथ्यावस्तु एकञ् च सत्यं वस्तु इति  
मिथ्यासत्यवस्तु-द्वयम् आदाय  
गणनां कुर्यात् ?  
अतः ब्रह्मणः पूर्वरीत्या द्वैविध्य-व्यवस्था न कर्तुं शक्या ।  
परन्तु श्रीशङ्कराचार्याणां तथा कथनं  
जगतः मूल-कारणम् ईश्वरम् अनङ्गीकुर्वतां बौद्धानां सन्तृप्त्य्-अर्थम् एव ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 2, 2025, 7:10:40 AMApr 2
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
स एव - 

तत्त्व-शास्त्र-दृष्ट्या ऽपि  
तत्त्वस्य कक्ष्याद्वयम् अनिवार्यम् ।
तच् च पूर्वं सङ्गीत-विद्वद्-दृष्टान्तेन प्रदर्शितम् ।
तस्यायम् अभिप्रायः -

सङ्गीतविद्वान् सन्न् अपि
सदा सङ्गीतं गायन् न तिष्ठत्य् एव ।
निद्रायां तु सम्पूर्ण-ज्ञान-लोपो भवति ।
तथापि गायन-शक्तिस् तु तद्-अन्तर्निहिता वर्तत एव ।
तस्या अपि लोपे तु
जागरणानन्तरं स एव गायतीति लोकव्यवहारः सर्वसम्मतः कथं स्यात् ?

एवम् एव
ब्रह्मणोऽपि एकस्यैव कक्ष्या-द्वयम् अनिवार्यम् ।
सर्वोत्तीर्णा स्थितिर् एका,
किञ्चिद् अवतीर्य जगद्-रूपेणावस्थितिर् अन्या
वेदान्तेषु दृश्यते एव ।

न च तावता ब्रह्म-द्वयं वा
सर्वथा शक्ति-शून्यं वा स्वीकर्तव्यम् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 3, 2025, 1:20:32 AMApr 3
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः

अतः निर्विशेषं वस्तु
जगति शश-शृङ्ग-तुल्यम् एव,
कदाचित् प्रयुज्यमानम् अपि निर्विशेष-पदं
विवक्षित-विशेषस्याभावात् तथा प्रयुज्यते ।(4)
यथा जन-सम्मर्दं दूरात् पश्यन्
कश्चित् तत्-प्रदेशाद् आगच्छन्तम् अन्यं पुरुषं पृच्छति

को विशेषः? तत्र जनाः मिलिताः?

इति। अन्य उत्तरं वदति

न कोऽपि विशेषः, आकस्मिकोऽयं सम्मर्दः

इति ।
अथाऽपि तत्र तत् क्षेत्रं शून्यम् एवेति नार्थः ।


विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 3, 2025, 6:30:23 AMApr 3
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः

इदम् अत्रावधेयम् -
लोके “सङ्गीत-विद्वान् कुत्र गतः ?” इति प्रश्ने
सङ्गीतविद्वान् निद्रातीति उतरं दीयते ।
वस्तुतः निद्राकाले सः गायति वा ?
अतः “सङ्गीत-स्विद्वान् न निद्राती"ति प्रयोगः अपार्थ एव स्यात् ।
सः जागरणानन्तरं पिशाचाविष्टः सन् गायतीति न कोऽपि मनुते,
परन्तु स एव गायतीत्येव मनुते ।(5)
सङ्गीतविद्वान् निद्रातीति व्यवहारे
तस्य सङ्गीत-ज्ञानस्य व्यक्त्य्-अ-भावेऽपि
शक्ति-रूपेण तज्-ज्ञानं वर्तते एव ।

नो चेत्
सुषुप्तौ सर्वेषां सम्पूर्ण-ज्ञान-शून्यत्वात्,
व्यवहारोपयोगि-सामान्य-ज्ञान-दृष्ट्या ऽपि
निद्राणः पुरुषः अन्य एव भवेत् ।
इष्टापत्तौ च
निद्रावस्था ऽपि मरण-तुल्या स्यात् ।
नैतत् कस्यापि सम्मतम् ।
सुप्तोत्थितस्य

“निद्रावस्थायां योहम् आसं
स एवाहम् उत्थितः "

इति प्रत्यभिज्ञा ऽपि विरुध्येत ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 3, 2025, 6:31:00 AMApr 3
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अत एव पाञ्चरात्र-प्रक्रियायां
पर-व्यूह-विभवान्तर्याम्य्-अर्चावतार-भेदः प्रतिपादितः ।
एतेषु पर-वासुदेव-रूपं सर्वोत्तीर्णं
निर्विशेष-वादि-सम्मत-ब्रह्म-तुल्यम् ।
अथापि तत्र गुणानाम् अनुन्मेष-मात्रम्,
न तु गुणानामसम्भवः ।(5)
अत्र गुणानां सर्वथा अ-सत्त्वे
कथम् उत्तरेष्व् आविर्भावः ?
तद् एव यदा व्यूह-रूपम् आप्नोति
तदा ज्ञान-शक्ति-बलैश्वर्य-वीर्य-तेजसाम् अपि षड्-गुणानाम् आविर्भावाद्
व्यूह-वासुदेव-नाम्ना व्यवह्रियते ।
अनन्तरं सङ्कर्षण-प्रद्युम्नानिरुद्धेषु
एकैकस्मिन् अपि प्रधानतः द्वयोः द्वयोः गुणयोर् उन्मेषः,
इतर-चतुर्-गुणानाम् अनुन्मेषः ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 5, 2025, 2:22:33 AMApr 5
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
जीवस्येह फलम् इष्टं संसार-पीडा-रूप-+अनिष्ट-निवृत्तिः।
तच् चानिष्टम् अमुत्र न भवतीति, तदात्वे स्पष्टम् भगवतः प्रधान-फलित्वम्।

तद् यथा काचित् कन्या विवाहात् पूर्वं वर-चितौ स्वसुखम् एवेक्षते,
विवाहात् परं तु पति-परिवारस्यैव हितं स्व-सुखाद् अपि पुरः करोति।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 5, 2025, 2:50:58 AMApr 5
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अचेतनायाः प्रतिमाया अवस्था-परिवर्तनेन आभरण-धारणाधानेन च  
तत्-सौन्दर्यस्य दर्शनेन नन्दने,  

चेतनस्य शुकस्य पञ्जरे निधानपूर्वं क्षीरदानेन  
स्वैरं बहुलं सञ्चारणेन च  
तदीयानन्दस्य दर्शनेन नन्दने च  
नास्ति किल तारतम्यं निरपेक्षाणां रसिकानाम् +++(भगवन्-निभानाम्)+++॥

the delight in melting dolls made of metals and shaping them into ornaments  
and wearing them in admiration of their beauty  
is not different (in kind)  
... from the delight enjoyed by him  
in keeping a sentient being like a parrot in a cage  
and feeding it with milk  
and seeing it fly according to His pleasure,  
to a man of cultivated tastes,  
who is not in need of anything.

 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 6, 2025, 2:14:20 AMApr 6
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
वरदार्यः -

एतद्-उक्तार्थो लोक-व्यवहारेणापि ज्ञातुं शक्यते  
लोके मार्ग-गमन-वेलायां  
पिता पुत्रस्य हस्तं गृहीत्वा  
गच्छतीत्येकः प्रकारः ।  
अन्यः प्रकारस् तु  
पुत्रः पितृ-हस्तं गृहीत्वा गच्छतीति ।  
अनयोर् मध्ये प्रथमः प्रकारः  
पुत्रस्य स्खलने सत्य् अपि  
पुत्रहस्तस्य पित्रा ग्रहणात्  
पुत्रः न पतेत्,  
पिता तं रक्षेत् ।  
द्वितीयस्तु पुत्रेण पित्रृहस्तस्य गृहीतत्वात्  
स्खलने पुत्रस्य स्खलनम् अनिवार्यम् ।  
एवं रीत्या व्यक्ताव्यक्त-मार्गयोर् विशेषस्य स्पष्टत्वेऽपि  
विपरीतमेव वर्णयन्ति श्रीशङ्कराचार्याः । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 7, 2025, 8:03:38 AMApr 7
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एवम् एव मृत्-परिणाम-रूपस्य घटस्य मृदश् च +अभेदेऽपि,  
यथा मृद्-अन्-अन्यत्वं घटे सम्भवति  
न तु तथा घटानन्यत्वं मृदि वक्तुं शक्यते -  
यतः शराव-मणिकादीनाम् अपि मृत्त्वेन  
तेषाम् अपि घटानन्यत्व प्रसङ्गात्,  
यथा वा मृज्जन्यः घटः मृदं नातिक्रामति  
न तथा मृत् ।

अयम् एव न्यायः  
जीवब्रह्मणोः, अ-चेतन--ब्रह्मणोश् च विषये ज्ञातव्यः।  
चेतनाचेतनयोर् उभयोर् अपि ब्रह्मोपादानम्,  
उभयञ्च ब्रह्मण उपादेयम् ।  
एवञ् च ब्रह्म-जीवयोर् अ-भेदे सत्य् अपि  
ब्रह्मानन्यत्वं जीवस्य,  
न तु जीवानन्यत्वं ब्रह्मणः ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 7, 2025, 10:03:07 AMApr 7
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
आहत्य एतादृश-स्थले  
विधि-वाक्यापेक्षया निषेधस्यैव प्राधान्यं लोकानुभवसिद्धम् ।  

> एको महान् नीलो घटः  

इत्यत्र चत्वारि पदानि प्रत्येकं स्वार्थं बोधयन्त्य् एव ।  
"सः नासीद्" इति निषेधे  
एकेन नञा सर्व-निषेधस्य +अनुभवसिद्धत्वाद्  
विध्य्-अपेक्षया निषेधस्यैव प्राधान्यं लोकानुभव-सिद्धम् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 9, 2025, 7:06:33 AMApr 9
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
ब्रह्म तु त्रि-गुण-रहितं त्रि-गुणातीतं  
तच् च नोपादानं भवितुम् अर्हति  
इति साङ्ख्यीय-पूर्व-पक्षः ।  
अस्य समाधानं “ दृश्यते तु" (ब्र.सू. २।१।६), इति  
“सलक्षणयोरेव उपादानोपादेयभावः' इति नियमो नास्ति  
विलक्षणयोर् अपि उपादानोपादेयभावः दृश्यते । 
यथा गोमयाद् वृश्चिकोत्पत्तिः,  
यथा च लूतातः तन्तूत्पत्तिः,  
कृमिभ्यः माक्षिकोत्पत्तिः ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 9, 2025, 8:15:58 AMApr 9
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एवम् एवाङ्गारादाव् अपि  
प्रकाशो रूपान्तरेण आसीदेव,  
अतस् तेषां मेलनेनैव तद् भवति ।  
तत् तत्र शक्ति-रूपेणावस्थितम् एवाभिव्यज्यते ।  
यत्र कुत्राऽपि सम्पूर्णासत्कार्य-वादः +नास्त्येव । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 9, 2025, 8:26:11 AMApr 9
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एतावता ऽऽत्मनः लोहित-स्फटिकवत्त्वं सिद्ध्यति ।  
वस्तुतः स्फटिके आरुण्यं नागच्छति ।  
तत्पार्श्वे वर्तमानं पुष्पादिकं तत्प्रतीतिं जनयति ।+++(5)+++  
तथैव शरीरमात्मनि अयं वृद्धः इति व्यवहारं जनयति  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 13, 2025, 8:09:54 AMApr 13
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
-कारणं मनसः दुर्जयत्व--स्व-रूपं निरूपयन्  
मनो-जयस्यातिदुष्करत्वं पोषयितुं
"शक्योऽवाप्तुम् उपायतः" इति वदति ।

लोके ऽपि जनाः
मत्त-गजादिकम्
उपायेन इक्षु-दण्डादि-प्रदर्शनादिना वशे कुर्वन्ति
एवम् उपायेन मनोऽपि वशीकर्तुं शक्यत एव ।
अत एव

> "उपायेन तु यच्छक्यं
> न तच्छक्यं पराक्रमैः "

इति +उपायस्य महत्त्वम् उच्यते ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 16, 2025, 5:43:22 AMApr 16
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अ-द्वैतम् आत्म-तत्त्वम् एव,  
तच् च +अग्रे सृष्टेः पूर्वम् एकम् एवासीत्,  
मध्ये चिद्--अ-चिद्-आत्मकानन्तरूपं सत्,  
सृष्टेर् अनन्तरं च +एकम् एव भविष्यति -  
यथा बीजं पूर्वम् एकम्,  
मध्ये अनेकं सत्  
पुनर् अन्ते बीजम् एव भविष्यति ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 16, 2025, 5:46:54 AMApr 16
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
यथा विचित्र-शाखा-पत्र-पुष्प-फलात्मकाम्र-वृक्ष-रूपेण परिणामानुकूल-शक्ति-विशेष आम्र-बीजे स्वीक्रियते ।  
अन्यथा तस्माद् यदि पनसोऽपि स्यात्,  
तदा बीजं निर्विशेषं स्यात् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 16, 2025, 8:35:28 PMApr 16
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
एवमेव सर्वशास्त्राणां सर्वतत्त्वानाम् अपि  
नियमेन काचन मर्यादा वर्तते।  
तन्-मर्यादा-रक्षणे  
कस्यापि न कापि धर्षणा ।  
अन्ततः एकस्मिन्न् एव गृहे कृमि-कीटादयोऽपि बहवः अज्ञाताः जीवाः वसन्ति।  
तत्-तत्-स्थाने तेषां तेषां सञ्चारे  
न कापि धर्षणा भवति ।  
मर्यादोल्लङ्घने त्व् अनिवार्या धर्षणा । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 18, 2025, 4:09:04 AMApr 18
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
यद्य् उन्नत-पदवीं प्रति गमने
नीच-पदवी त्याज्या,
तत्र को शोकः?
एवं प्रपन्नस्य जीव-त्यागोऽपि।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 23, 2025, 4:22:51 AMApr 23
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
रत्नस्य मालिन्ये नष्टे सति  
जायमानः स्वाभाविकः प्रभा-विकासो  
यथा तद्-अनुरूप भगवत्-संकल्प-मात्र-निबन्धनो भवति,  
तथा मुक्तस्य जायमाना ज्ञान-विकासादयोऽपि  
तद्-अनुरूप-व्यवस्थित-भगवत्-संकल्प-निबन्धना भवन्ति ।

If it is asked how this happens, the answer is as follows:--  
When the gem is cleansed of the dust (enveloping it),  
it shines with a natural radiance,  
but this natural radiance is due only to the will of Iśvara  
that ordains its having radiance.  
So also the expansion of knowledge and other attributes which the mukta acquires  
are due to the will of Iśvara, which ordains them.  

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Apr 25, 2025, 8:53:21 PMApr 25
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
अतो मातृ-स्तन्यवद् उपनमत ईश्वरप्रसादस्य  
स्तनन्-धयीय-स्तन-चूषण-व्यापारवद्  
अस्यापेक्षादीनि ।  

Therefore such things as the prayer for protection  
are like the child's act of suckling the mother's milk  
and the grace of the Lord flows like mother's milk (after the propitiation). 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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May 10, 2025, 12:32:35 PMMay 10
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
भृत्यप्रधाने मन्त्रिणि प्राधान्यविवक्षया  
अयमेव राजेति प्रयोगोदृश्यते यथा॥

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Jun 1, 2025, 8:10:27 AMJun 1
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
भगवद्-ध्यान-विधौ वेङ्कटनाथार्यः - 

इदम्

> अ-रोगेणारोग्यार्थिना च क्षीरं सेव्यम्

इत्य् उक्त्या तुल्यम् । 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Aug 26, 2025, 5:17:00 AMAug 26
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
यद्यपि सांख्यस्य ' सांख्यं योगः पाञ्चरात्रम् '
इति वेदैः सह कथनं
तथाऽपि श्रुतिविरोधे तस्य बाध्यत्वमेव ।
न हि साधर्म्यमात्रेण वैधर्म्यं निवार्यते -
अपामग्निना सह द्रव्यत्व-साधर्म्येण स्पर्श-कृत-वैधर्म्याभाव-प्रसङ्गात् ।

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Nov 18, 2025, 12:56:44 AMNov 18
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
उत्तमूर्-वीरराघवार्यः -

एको हि महान् वेद-वृक्षः  
बहुधा विभज्यते।  
तत्र प्रणवः परम-मूल-भूतः।  
तद्-उपरितनः शाखा-विभाग-भागतः प्राक्  
मूल-सन्निहितः स्कन्ध-भागः  
भगवत्-पारम्य-- तद्-अर्चनोपासनादि-मात्र--पर एकायनम् उच्यते। 

विश्वासो वासुकिजः (Vishvas Vasuki)

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Nov 18, 2025, 1:05:54 AMNov 18
to चेतो-देव-जीवादि-तत्त्व-विचारः
इमाश् च शाखाः  
नाना-विधार्चन-याग-यजनादि-पराः  
परमर्षि-व्यतिरिक्तानां तत्त्व-हित-पारम्य-प्रतिपादनाक्षमा  
इत्य् एव वदन्ति।

उपक्रमोपसंहारैक्य-सम्पत्तये  
परं मात्रया तत्-तच्-छाखान्ते उपनिषदि  
स्कन्ध-गतार्थो दर्श्यते।  

ताश् चोपनिषदः  
न्यग्रोधस्यास्य शिफायमानाः+++(=न्यग्रोधमूलायमानाः)+++  
वेद-वृक्षम् इमं पुष्णन्ति।  
तद्-भागम् एकायनम् अनुसरति पाञ्चरात्रम्
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