रास्ते में पंकज उधास की एक ग़ज़ल सुनाई दी… “जब तबियत किसी पे आती है….”
“… मौत के दिन क़रीब होते हैं!”
वाह वाह, क्या बात है!
एकदम वही बात हो गयी कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर भागता है। अब यह मत पूछिए कि इतनी रोमांटिक ग़ज़ल सुन कर हमें गीदड़ की मौत जैसा कचरा ख्याल क्यों आया। बस, आ गया। दिमाग ही ठहरा, जहां मन चाहा दौड़ गया।
(शायद यह जेम्स बॉण्ड की नयी फिल्म देखने का असर था। दोनों बातें फिल्म पर लागू होती हैं। अच्छी फिल्म है, अगली बार उसकी बात करेंगे)।