प्रयोग ही तकनीक के विकास का रास्ता है...
अगर व्यक्ति प्रयोग न करे तो सब कुछ ठहर जाए और जीवन में कभी कुछ नया न हो. गिरिराज जोशी अपनी प्रयोगधर्मी कवितानुमा ग़ज़ल या कहें कि ग़ज़ल नुमा कविता जो हिन्दीनुमा उर्दू या कहें कि उर्दूनुमा हिन्दी ... अरे! ये क्या लफ़ड़ा हो रहा है, जो भी है, कविता है, और प्रयोग धर्मी है, सुना रहे हैं -
अगर यह कुछ क्लिष्ठ प्रतीत होता है, तो इसका अर्थ अमित या देबाशीष से पूछें. भले ही ये लाख कहें कि कविताएँ उनके पल्ले नहीं पड़तीं, परंतु ये नई तकनीकी के अच्छे खासे जानकार तो हैं ही और यह बात हम सब को पता है. और, इस कविता में तो एकदम नई तकनीक है.
एक दिन के बादशाह लाल्टू ने पर-निंदा से बचते हुए आत्म-निंदा करनी चाही परंतु यह निंदा भी कवितानुमा क्लिष्ठ हो गई और एक-एक वाक्य के कई अर्थ निकलने लगे. पाठक अपनी चेतना के अनुसार ग्रहण करें-
एक पेड़ है. नक़ली. कांक्रीट का. उसे देख पता नहीं क्यों जीतू उदास हो रहे हैं, और उसी पेड़ को देख पंकज खुश हो रहे हैं. शायद नज़रिए का फ़ेर है!
"दूर से देखा तो जुल्फ़ें लहरा रही थीं
पास जा के देखा तो सरदार बाल सुखा रहा था."
कोई तुक नहीं मिली? कोई बात नहीं, यह कविता नहीं है, न ही ग़ज़ल है. यह चुराया हुआ चुटकुला है. चुटकुले में हँसी नहीं आई? कोई बात नहीं, चुटकुले सुनाने की कला हर किसी को नहीं आती.
हिन्दी चिट्ठाकारिता के बारे में अंग्रेज़ी के अख़बार छाप रहे हैं, और हिन्दी वाले सोए पड़े हैं. उधर आईना, मूषक को आईना दिखा रहे हैं - मूषक मूषक, बता तू कैसा दिखता है? उधर कुंजीपट के सिपाही अपना कुंजीपट छोड़ मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म देखने जाते हैं तो कुछ और ही देखने लग जाते हैं:
एक बार फिर कविता और ग़ज़ल की बातें. क्या करें, हिन्दी चिट्ठाकार कविता और ग़ज़ल से बाहर ही नहीं निकल पाते, भले ही कुछ चिट्ठाकारों को समझ न आए, या कुछ कविताओं से चिढ़ें. पर, इनकी ये पंक्तियाँ क्या किसी "गालीब" से कम हैं? -
नाम में क्या रखा है? परंतु जब आपके चिट्ठे का नाम ‘मेरी दुलहन पंखा है' जैसा होगा तो लोगों में उत्सुकता तो जगेगी ही.
और इससे पहले कि जीतू के जुगाड़ी लिंक से बात खत्म करें, भावनाओं में कुछ और कविताएँ-
और यह भी -
समझ में अब भी आया कि नहीं? वैसे, ये नासमझ भी बहुत पहले गीत लिखते पाए गए हैं. हाथ कंगन को आरसी क्या?