आइए, प्रयोग करें...

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चिठ्ठा चर्चा

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Nov 6, 2006, 2:14:51 AM11/6/06
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प्रयोग ही तकनीक के विकास का रास्ता है...

अगर व्यक्ति प्रयोग न करे तो सब कुछ ठहर जाए और जीवन में कभी कुछ नया न हो. गिरिराज जोशी अपनी प्रयोगधर्मी कवितानुमा ग़ज़ल या कहें कि ग़ज़ल नुमा कविता जो हिन्दीनुमा उर्दू या कहें कि उर्दूनुमा हिन्दी ... अरे! ये क्या लफ़ड़ा हो रहा है, जो भी है, कविता है, और प्रयोग धर्मी है, सुना रहे हैं -

निगाहों से कर सबकुछ बयां,

क्यूं हलक-ए-झूठ कह जाते हैं?

अगर यह कुछ क्लिष्ठ प्रतीत होता है, तो इसका अर्थ अमित या देबाशीष से पूछें. भले ही ये लाख कहें कि कविताएँ उनके पल्ले नहीं पड़तीं, परंतु ये नई तकनीकी के अच्छे खासे जानकार तो हैं ही और यह बात हम सब को पता है. और, इस कविता में तो एकदम नई तकनीक है.

एक दिन के बादशाह लाल्टू ने पर-निंदा से बचते हुए आत्म-निंदा करनी चाही परंतु यह निंदा भी कवितानुमा क्लिष्ठ हो गई और एक-एक वाक्य के कई अर्थ निकलने लगे. पाठक अपनी चेतना के अनुसार ग्रहण करें-

.....तो आत्म निंदा यह कि सारी गलती आर टी ओ कि है ऐसा नहीं है। आर टी ओ ने सिर्फ परिस्थितियाँ ऐसी बना दी हैं कि हैं जरा सा चूको तो गलतियाँ करो। फिर रोओ। उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि आप हैदराबाद में हमारे आस-पास काम कर रहे हैं और दूसरे प्रांत से वाहनों का एन ओ सी मँगवा रहे हैं। आप के लाख कहने के बावजूद दूसरे प्रांत के क्लर्क बाबू कागजों में लिख देते हैं कि आप वाहन हैदराबाद ले जा रहे हैं तो आप फँस गए। क्योंकि आप ने चाहा है कि हैदराबाद का पिन कोड होने पर भी आपका निवास हैदराबाद नहीं रंगा रेड्डी जिले में है यह बात क्लर्क के समझ में आ जाए और आप सही आर टी ओ में कागज़ ले जाएँ। पर बाबू इस बात को क्यों समझे। आपको भी बात समझ में नहीं आई न?....

एक पेड़ है. नक़ली. कांक्रीट का. उसे देख पता नहीं क्यों जीतू उदास हो रहे हैं, और उसी पेड़ को देख पंकज खुश हो रहे हैं. शायद नज़रिए का फ़ेर है!

"दूर से देखा तो जुल्फ़ें लहरा रही थीं

पास जा के देखा तो सरदार बाल सुखा रहा था."

कोई तुक नहीं मिली? कोई बात नहीं, यह कविता नहीं है, न ही ग़ज़ल है. यह चुराया हुआ चुटकुला है. चुटकुले में हँसी नहीं आई? कोई बात नहीं, चुटकुले सुनाने की कला हर किसी को नहीं आती.

हिन्दी चिट्ठाकारिता के बारे में अंग्रेज़ी के अख़बार छाप रहे हैं, और हिन्दी वाले सोए पड़े हैं. उधर आईना, मूषक को आईना दिखा रहे हैं - मूषक मूषक, बता तू कैसा दिखता है? उधर कुंजीपट के सिपाही अपना कुंजीपट छोड़ मल्टीप्लैक्स में फ़िल्म देखने जाते हैं तो कुछ और ही देखने लग जाते हैं:

.....मल्टीप्लैक्स अब ऐसे वर्ग को जन्म दे रहा है जो यहां अपने आने-जाने को स्टेटस सिंबल मानता है. यह वर्ग किसी भी क़ीमत पर शान से ज़ेब से पैसे निकालता है और टिकट, ठंडा, पॉपकॉर्न लेकर अंदर चला जाता है. इस नीश क्लास के लिए सिनेमा भी उसी कोटि का बनता है. इस वर्ग का आका एनआरआइयों के बीच पनप रहा वह वर्ग है जो शाइनिंग इंडिया की तस्वीर देखना और दिखाना चाहता है. इसके लिए माल आपूर्ति का ज़िम्मा यशराज फ़िल्म्स, मुक्ता आर्टस, धर्मा फ़िल्म्स, ऐडलैब्स की कारपोरेटिया हस्तियों ने संभाल लिया है. जो विवाहेत्तर संबंधों को भारतीय सामाजिक कसौटी पर खरा उतारने की कुचेष्टा करने वाली कभी अलविदा ना कहना बनाते हैं और चोरी-डकैती में लिप्त अनायकों को महिमामंडित करने की धूम मचाते हैं.....

एक बार फिर कविता और ग़ज़ल की बातें. क्या करें, हिन्दी चिट्ठाकार कविता और ग़ज़ल से बाहर ही नहीं निकल पाते, भले ही कुछ चिट्ठाकारों को समझ न आए, या कुछ कविताओं से चिढ़ें. पर, इनकी ये पंक्तियाँ क्या किसी "गालीब" से कम हैं? -

एक बच्चा

मेहनत मजदूरी करके

सीधा स्कुल जाता है

मुस्किल से ही "पास"

परिणाम अपना पाता है

दूसरा बच्चा

बीयर-बार जाता है

परीक्षा से पूर्व

गुरूदेव से विशेष वार्ता

और परिणाम में

प्रथम-श्रेणी लिखा आता है

नाम में क्या रखा है? परंतु जब आपके चिट्ठे का नाम ‘मेरी दुलहन पंखा है' जैसा होगा तो लोगों में उत्सुकता तो जगेगी ही.

और इससे पहले कि जीतू के जुगाड़ी लिंक से बात खत्म करें, भावनाओं में कुछ और कविताएँ-

मन करता कुछ सृजन करुँ....

जब दिनकर और निराला देखूँ

मन करता कुछ सृजन करुँ

बच्चन-प्रेमचन्द को पढ़कर मन कहता

मैं भी कुछ गढ़ने का जतन करुँ....

और यह भी -

कविता है मन के मीतों की....

इसमें मान है मन के भावों का

जीवन की अनुभूति इसमें कोई कोरा ज्ञान नहीं

इसमें जेठ की ऎंठ नहीं

और जेठानी की पेठ नहीं

यह तो कर्मॊं की पूजा है...

समझ में अब भी आया कि नहीं? वैसे, ये नासमझ भी बहुत पहले गीत लिखते पाए गए हैं. हाथ कंगन को आरसी क्या?


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