महर्षि दयानंद गोसम्वर्द्धन केंद्र दिल्ली- 9
रायस्पोषप्राप्ति सूक्त ( धन पशु प्राप्ति सूक्त) भाग -1
ऋषिः –अथर्वा, देवता- अष्टका (आठों प्रहर) (मकर संक्रान्ति –उत्तरायणोदय)
अथर्व वेद 3.10
1.प्रथमा ह व्यु वास सा धेनुरभवद् यमे !
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् !!
सर्व प्रथम उषा ने अंधकार को दूर कर के इस संसार की व्यवस्था को स्वनियन्त्रित स्थायित्व के हेतु धेनु प्रदान की. जो हमारे सब के लिए दुग्ध के दोहन द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति का साधन हो.
2.यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्!
संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली!!
संवत्सर की दक्षिणायण रूपि रात्रि और प्रतिदिन आने वाली रात्रि दोनों की देवता प्रशंसा करते हैं. प्रति दिन रात्रि को विश्राम के पश्चात जैसे धेनु हमारे लिए मंगल कारी होती है उसी प्रकार संवत्सर की दक्षिणायण रूपि रात्रि से प्रकृति मानो विश्राम के पश्चात जैसे परिवार के एक पत्नी मंगल कारी होती है.
3.संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रात्र्युपास्महे !
सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज !!
हे रात्रि (दक्षिणायन को) संवत्सर का प्रतिनिधि मान कर हम तुम्हारी प्रशंसा करते हैं. प्रजा को वनस्पति, अन्न, पुत्र पौत्रादि से चिरंजीवि बनाती हुई रायस्पोष –धन और पशुओं से समृद्धि का साधन बनती हो.
4.इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा!
महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री!!
इसी आठ प्रहर – प्रति दिन वाली उषा ने सर्व प्रथम सृष्टि में अंधकार का नाश किया था. इन प्रति दिन वाली उषाओं में अनेक महत्वपूर्ण महिमाएं छुपी हैं. सूर्य की वधुः रूपि उषा सब जगत को प्रकाश प्रदान कर के सर्वोत्कृष्ट रूप उत्पन्न करती है.
5.वानस्पत्या ग्रावाणो घोषमक्रत हविष्कृण्वन्तः परिवत्सरीणम् !
एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रयीणाम् !!
प्रकृति के वर्ष प्रति वर्ष होने वाले संवत्सरीय यज्ञ में उर्वरक मृदा द्वारा वनस्पति उत्पन्न हो कर आनंद घोष करते हैं. जिन के प्रतिदिन अनुग्रह से सुंदर वीर प्रजा पुत्र पौत्रादिक विविध समृद्धियों के स्वामी बनें.
6.इडायास्पदं घृतवत् सरीसृपं जातवेदः प्रति हव्या गृभाय !
ये ग्राम्याः पशवो विश्वरूपास्तेषां सप्तानां मयि रन्तिरस्तु !!
गाय का पैर घृत समान है.-जहां पड जाय घी ही घी है.
हे अग्निदेव इस घृत को हवि के लिए ग्रहण करो. यज्ञ के फल स्वरूप हमारे लिए जनोपयोगी सातों पशु ( गौ, अश्व, बकरी, खच्चर,गधा, ऊंट और भेड) आवश्यकतानुसार हमारी समृद्धि के साधन उपलब्ध हों
7.आ मा पुष्टे च पोषे च रात्रि देवानां सुमतौ स्याम् !
पूर्णा दर्वे परा पत सुपूर्णा पुनरा पत !
सर्वान्यज्ञान्त्संभुञ्जतीष्मूर्जं न आ भर !!
रात्रि जैसे अंधकार के समय में भी हमें देवताओं के उत्तम ज्ञान की (यज्ञ करने में श्रद्धा की) सुमति बनी रहे. जो हमारे लिए पुष्टि कारक पोषण के साधन दे. यज्ञ में हमारी पूरी भरी हुइ आहुतियां यज्ञ को पूर्ण कर के परिणाम स्वरूप हमारे पास अन्न, ऊर्जा और समृद्धि ला कर दें.
8. आयमगन्त्संवत्सर: पतिरेकाष्टके तव !
सा न आयुष्मती प्रजां रायस्पोषेण सं सृज !!
दक्षिणायन रूपि रात्रि पत्नी का उत्तरायण रूपि संवत्सर पति आ गया है. आठ प्रहर की रात्रि पत्नी का उषा काल में सूर्योदय से पति के रूप दिवस भी में आ गया है, इन दोनों के द्वारा प्रजा, पुत्र पौत्र इत्यादि को रायस्पोषण प्राप्त हो.
9.ऋतून् यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान् !
समाः संवत्सरान्मासान्भूतस्य पतये यजे !!
महीने, ऋतु, ऋतुसम्बंधी तथा वार्षिक ,अर्ध मासों, संवत्सरों के अनुकूल हम यज्ञादि कर्म करते रहें.
10. ऋतुभ्यष्ट्वार्त्वेभ्यो माभ्द्यः संवत्सरेभ्यः !
धात्रे विधात्रे समृधे भूतस्य पतये यजे !!
महीने, ऋतु, वर्ष इत्यादि सब के लिए हमारे यज्ञों के परिणाम स्वरूप , धाता, विधाता हमें सम्पूर्ण समृद्धि प्रदान करें.
11. इडया जुह्वतो वयं सं विशेमोप गोमतः !
गृहानलुभ्यतो वयं सं विशेमोप गोमतः !!
गोदुग्ध से निर्मित , गोघृत से यज्ञ करते हुवे हम लोग समृद्धि पूर्वक गोशालाओं और अपने गृहों में लोभ रहित हो कर निवास करें.
12. एकाष्टका तपसा तप्यमाना जजान गर्भं महिमानमिन्द्रम् !
तेन देवा व्यसहन्त शत्रुन् हन्ता दस्यूनामभवच्छचीपतिः !!
आठों प्रहर, सब दिन और पूरे वर्ष हम जो तप करते हैं उस के गर्भ से परिणामस्वरूप हम इन्द्र स्वरूप आचरण द्वारा हम दस्युओं शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें.
13. इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः!
कामनास्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः !!
हे यज्ञाग्नि इंद्र जैसे पुत्रोंवाली, सोम जैसे अंतःकरण वाले पुत्रों को उत्पन्न करने वाली तुम प्रजापति की पुत्री हो. हमारी हवि स्वीकार करो. हमारी मनोकामनाएं पूर्ण हों.
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Ajit Gargeshwari
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