छठ पर्व विमर्श
—कुशाग्र अनिकेत
कार्त्तिक-मास के शुक्ल-पक्ष की षष्ठी को छठ पर्व मनाया जाता है। इस दिन भगवान् सूर्य-नारायण के अतिरिक्त एक विशिष्ट देवी “छठी मइया” की पूजा होती है। किन्तु प्रश्न उठता है कि ये “छठी मइया” कौन हैं?
किसी देवता, पर्व, व्रत, तीर्थ अथवा क्षेत्र का जो स्वरूप परंपरा से लोकाचार में मिलता है, प्रायः पुराण उसे अपने कलेवर में संरक्षित कर लेते हैं। इस आदान-प्रदान की प्रक्रिया से पुराणों के एक विस्तृत अंश की रचना हुई है।
वस्तुतः “छठी मइया” का पौराणिक नाम “षष्ठी देवी” है। इनकी गणना षोडश मातृकाओं के अन्तर्गत होती है। इनके दो अन्य स्वरूप भी मिलते हैं -
१. कात्यायनी, जो नवदुर्गा के अन्तर्गत शक्ति का छठा स्वरूप हैं।
२. देवसेना, जो भगवान् कार्त्तिकेय की पत्नी और देवासुर-संग्राम में देवताओं की सेना का प्रतीक हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय ४३) और देवीभागवत-पुराण (स्कन्ध ९, अध्याय ४६) में षष्ठी देवी का वर्णन और उनकी पूजा-विधि प्राप्त होती है।-
षष्ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्ठी प्रकीर्तिता। बालकाधिष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा॥
“प्रकृति के षष्ठ अंश को षष्ठी देवी कहते हैं। ये बालकों की अधिष्ठात्री, विष्णु की माया तथा बालकों को देने वाली है।”
मातृकासु च विख्याता देवसेनाभिधा च सा।
प्राणाधिकप्रिया साध्वी स्कन्दभार्य्या च सुव्रता॥
“ये देवी मातृकाओं में विख्यात हैं और “देवसेना” नाम से प्रसिद्ध हैं। ये भगवान् कार्त्तिकेय की प्राणों से भी अधिक प्रिय पत्नी, साध्वी और उत्तम-व्रत वाली हैं।”
आयुः प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी।
सततं शिशुपार्श्वस्था योगेन सिद्धियोगिनी॥
“ये देवी बालकों को आयु देनेवाली, उनकी धात्री तथा रक्षा करने वाली हैं। ये सदा शिशुओं के निकट रहती हैं तथा योग द्वारा सिद्धयोगिनी हैं।”
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४३.४-६; देवीभागवत, ९.४६.४-६)
षष्ठी देवी की पूजा के तीन अवसर बताए गए हैं-
१. प्रत्येक मास के शुक्ल-पक्ष की षष्ठी को,
२. शिशु के जन्म से छठे दिन को,
३. शिशु के जन्म से २१-वें दिन को।
पूजा द्वादशमासेषु यस्याः षष्ठ्यास्तु सन्ततम्।
पूजा च सूतिकागारे परषष्ठदिने शिशोः॥
एकविंशतिमे चैव पूजा कल्याणहेतुकी ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड १.८३-८४; देखें देवीभागवत, स्कन्ध ९, १.८०-८१)
पुराणों में निःसंतान राजा प्रियंवद द्वारा देवी षष्ठी का व्रत करने की कथा है। राजा के व्रत से प्रसन्न होकर षष्ठी देवी प्रकट हुई थीं और उन्होंने अपना परिचय पितामह ब्रह्मा की मानस-पुत्री और कार्त्तिकेय की पत्नी देवसेना के रूप में दिया था -
ब्रह्मणो मानसी कन्या देवसेनाऽहमीश्वरी।
सृष्ट्वा मां मनसो धाता ददौ स्कन्दाय भूमिप॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड ४३.२५; देवीभागवत, ९.४६.२५)
देवीभागवत-पुराण (९.४६.५७-७३) में षष्ठी देवी का विस्तृत स्तोत्र भी प्राप्त होता है।
षष्ठी-तिथि को ही भगवान् कार्त्तिकेय का देवसेना-पति के रूप में अभिषेक हुआ था। प्रतीकात्मक रूप से इसी दिन देवसेना अर्थात् षष्ठी देवी से उनका विवाह भी संपन्न हुआ था।-
स्वयं स्कन्दो महादेवः सर्वपापप्रणाशनः।
तस्य षष्ठीं तिथिं प्रादादभिषेके पितामहः॥
(वामनपुराण, २५.४८)
यद्यपि प्रत्येक मास के शुक्ल-पक्ष की षष्ठी को स्कन्द-षष्ठी का व्रत किया जाता है, तथापि चैत्र (यमुना-षष्ठी के साथ), आषाढ़, भाद्रपद (हल-षष्ठी के साथ), आश्विन, कार्त्तिक और मार्गशीर्ष मासों में इसे मनाने का विशेष महत्त्व है। ये व्रत संपूर्ण भारतवर्ष में अलग अलग नामों से मनाए जाते हैं।
सूर्योपासना में षष्ठी और सप्तमी - ये दो तिथियाँ प्रशस्त हैं। महाभारत के अनुसार वनवास के समय राजा युधिष्ठिर ने अक्षय-पात्र की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की थी। इसी क्रम में उन्होंने भगवान् सूर्य के एक स्तोत्र की रचना की थी, जिसमें कहा गया है कि सप्तमी अथवा षष्ठी को जो सूर्य की पूजा करता है, लक्ष्मी उस मनुष्य पर प्रसन्न होती है।-
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥
(महाभारत ३.३.४५)
कृत्यकल्पतरु में स्कन्द-षष्ठी को ही सूर्य-षष्ठी कहा गया है, जिसमें स्नान और सूर्योपासना का विधान है। यह संभव है कि वर्तमान में प्रचलित छठ पर्व षष्ठी-तिथि को किए जाने वाले देवी षष्ठी के व्रत और षष्ठी-सप्तमी को की जाने वाली सूर्योपासना का सम्मिलित रूप है।
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परिशिष्ट
श्रीदेवीभागवत-पुराणान्तर्गतं (९.४६.५७-७३) षष्ठी-देवी-स्तोत्रम्
(श्रीदेवीभागवत-पुराण में प्राप्त षष्ठी देवी / छठी माता का स्तोत्र)
ध्यानम्
श्वेतचम्पकवर्णाभां रत्नभूषणभूषिताम्।
पवित्ररूपां परमां देवसेनामहं भजे॥
(शब्दकल्पद्रुमात्)
नारायण उवाच
स्तोत्रं शृणु मुनिश्रेष्ठ सर्वकामशुभावहम्।
वाञ्छाप्रदं च सर्वेषां गूढं वेदेषु नारद॥
नमो देव्यै महादेव्यै सिद्ध्यै शान्त्यै नमो नमः।
शुभायै देवसेनायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः॥
वरदायै पुत्रदायै धनदायै नमो नमः।
सुखदायै मोक्षदायै षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः॥
सृष्ट्यै षष्ठांशरूपायै सिद्धायै च नमो नमः।
मायायै सिद्धयोगिन्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः ॥
सारायै शारदायै च परादेव्यै नमो नमः।
बालाधिष्ठातृदेव्यै च षष्ठीदेव्यै नमो नमः॥
कल्याणदायै कल्याण्यै फलदायै च कर्मणाम्।
प्रत्यक्षायै स्वभक्तानां षष्ठ्यै देव्यै नमो नमः॥
पूज्यायै स्कन्दकान्तायै सर्वेषां सर्वकर्मसु।
देवरक्षणकारिण्यै षष्ठीदेव्यै नमो नमः॥
शुद्धसत्त्वस्वरूपायै वन्दितायै नृणां सदा।
हिंसाक्रोधवर्जितायै षष्ठीदेव्यै नमो नमः॥
धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि।
मानं देहि जयं देहि द्विषो जहि महेश्वरि॥
धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः।
देहि भूमिं प्रजां देहि विद्यां देहि सुपूजिते॥
कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नमः॥
फलश्रुतिः-
इति देवीं च संस्तूय लेभे पुत्रं प्रियव्रतः।
यशस्विनं च राजेन्द्रः षष्ठीदेव्याः प्रसादतः॥
षष्ठीस्तोत्रमिदं ब्रह्मन् यः शृणोति तु वत्सरम्।
अपुत्रो लभते पुत्रं वरं सुचिरजीविनम्॥
वर्षमेकं च यो भक्त्या सम्पूज्येदं शृणोति च।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो महावन्ध्या प्रसूयते॥
वीरं पुत्रं च गुणिनं विद्यावन्तं यशस्विनम्।
सुचिरायुष्यवन्तं च सूते देवीप्रसादतः॥
काकवन्ध्या च या नारी मृतवत्सा च या भवेत्।
वर्षं श्रुत्वा लभेत्पुत्रं षष्ठीदेवीप्रसादतः॥
रोगयुक्ते च बाले च पिता माता शृणोति चेत्।
मासेन मुच्यते बालः षष्ठीदेवीप्रसादतः॥
इति श्रीषष्ठीदेवीस्तोत्रम्।