भूषा - भाषा - भोजन और भजन

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Jugal Kishore Somani

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Aug 25, 2012, 4:09:58 AM8/25/12
to Patanjali Yog Peeth Haridwar, Mukul Shukla Mumbai, DR. HARISHCHANDRA SHAH, Bharat Swabhiman Trust, Dr. Ved Pratap Vaidik, Dr. Jaideep Arya, Dr. Ashutosh vajpeyee, B P S Chandel, dr.deepa...@gmail.com, Dr. Ernest Albert, Dr. Ved Pratap Vaidik


                                                 भूषा - भाषा - भोजन और भजन 
पिछले दिनों जोधपुर में दैनिक भास्कर समाचार पत्र के एक कार्यक्रम में मैनेजमेंट के महान गुरु , श्री राम के अत्यंत प्रिय , श्रद्धालुओं के निकटस्थ महाबली वीर हनुमान के अलबेले भक्त पंडित विजय शंकर जी मेहता उज्जैन से पधारे थे . उपरोक्त शीर्षक में वर्णित चारों शब्दों का बड़ा ही सुन्दर किन्तु वर्तमान परिवारीय पृष्ट भूमि में पल्लवित होने वाले अंकुरों को चेतावनी स्वरुप में अपना प्रवचन प्रस्तुत किया था . व्याख्या इतनी सरल और सटीक थी कि जय नारायण व्यास हॉल में बैठे प्रत्येक श्रोता के अन्दर तक पैठ गयी . 
पहला शब्द है " भूषा " .... इस शब्द से पहले , बोलचाल की भाषा में , एक और शब्द जुड़ता है - " वेश " पूरा शब्द हुआ " वेश - भूषा " . पंडितजी ने बाहरी आवरण ( पहनावे ) की शुद्धता की परिभाषा को इतनी बारीकी से गढ़ा कि अनायास ही हमें हमारी आतंरिक आवरण में होने वाली वर्तमान की गडबडियों से सजग भी करा दिया . शब्दात्मक ध्वनि तो हमारे बिगड़ते पहनावे को इंगित कर रही थी किन्तु भावनात्मक टंकार हृदय को झकझोरने में सफल रही . हमारे 'वर्तमान' के बिगड़ने में " भूषा " के अवहेलना मुख्य कारण है .सुधारना होगा इसे ......
दूसरा शब्द है " भाषा " .... पंडितजी ने सरलता पूर्वक यह शब्द दर्शक - दीर्घा तक प्रेषित कर दिया . बोलचाल की भाषा में हुए परिवर्तन के कारण हम किस ओर मुड़ते जा रहे हैं - इस कथन का विश्लेषण हमें गंभीर होकर विवेचन करने को बाध्य करता है कि इस " भाषा " शब्द के खो जाने के कारण हम कितने पतित हो चुके हैं ! भाषा यानि आतंरिक भाव इतने कुंठित हो गए हैं कि अभिव्यक्ति का यह मार्ग ही हमने बंद सा कर दिया है ....... बदलना होगा इसे .......
तीसरा शब्द है " भोजन " ....प्रचलित कहावत भी है कि " जैसा खाया अन्न - वैसा ही हुआ मन " .... पूजनीय विजय शंकर जी मेहता धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे - श्रोता निमग्न सुनते जा रहे थे कि किस तरह आज हम अपनी काया को संवार रहे हैं ! कैसे अन्न को तहस - नहस कर उसको उगल रहे हैं ! बंद करना होगा इस छिछोरेपन को . भोजन तो वो खाना होगा जिसके कारण बुद्धिमानी से मानस को परिपूर्ण कर विश्व के पटल पर सुसंदेश प्रसारित कर सकें . ध्यान देने की आवश्यकता है कि आज जो स्वार्थपरता बढ़ रही है इसमे हमारे वक्तव्य अपनी बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और ये वक्तव्य तो दूषित भोजन के सेवन से भ्रष्ट होने ही है . फिर कैसे हम " वसुदेव कुटुम्बकम " की चाह कर सकते हैं ?
और चोथा शब्द है " भजन " .... बहुत गहराई से पंडित मेहता ने विश्लेषण किया इस महान शब्द का . आज हम सनातनीय पद्धत्ति का अत्यधिक अपमान कर चुके हैं . पाश्चात्य दुर्गुणों ने मानो हमें डस सा लिया है . अर्थहीन भाव ही जागृत होते हैं हमारे मानस में . इस " भजन " की अनुपस्थिति के कारण ही हम हमारी भूषा , भाषा और भोजन को खो चुके हैं . ईश्वर की आराधना बिना भजन के कैसे संभव है ? भजन यानि सकारात्मक महिमा का गुणगान .... और हम करने लग गए हैं चापलूसी ! सनद रहे : बिना भजन के हम डूब जाएंगे . भजन को सुधारना अत्यावश्यक है ........
पंडितजी के संभाषण ( प्रवचन ) का मैंने मेरी बुद्धि से विश्लेषण किया है , सुधि पाठक अवश्य सकारात्मक भाव से इस सरल किन्तु गहन विषय को स्वयम के साथ सम्पूर्ण परिवार को अंगीकार करवाने का मार्ग अपने अपने ढंग से प्रशस्त करेंगे .........
प्रभु हम सबको सन्मार्ग की राह दिखाएं ....     
 
जुगल किशोर सोमाणी , जयपुर  






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