वयोवृद्ध और उनका आदेश |
The Elders and Their Advice |
कई बार वृद्ध पुरुष हठ करते हैं कि बच्चों को ऐसा करना चाहिए, दूसरी ओर औचित्य यह कहता है कि यह आदेश गलत है, धर्म और कर्त्तव्यऐ के विपरीत है । ऐसी दशा में एक का चुनाव करना पड़ता है कि गुरूजनों की बात मानें या औचित्य को शिरोधार्य करें । ऐसा धर्मसंकट उपस्थित होने पर धर्म, औचित्य एवं कर्त्तव्य अपने बच्चों की लगायें रखना चाहता है, पर बच्चों की प्रतिभा एवं अभिरुचि दूसरी दिशा में सुविधा खोजती है । क्या यह उचित होगा कि बच्चों की आकांक्षा को निरस्त करके बड़ों की व्यवस्था ही प्रधान रहे ? किया जाता रहता तो संसार के लगभग सभी महापुरूष अपने पिता के आज्ञाकारी होते और उन्हीं के छोटे-मोटे व्यवसायों को चलाते रहने वाले तुच्छ व्यक्ति बने रहते । संसार में समझदार और वृद्ध पुरुषों की कमी नहीं है । उनके अनुभव तथा ज्ञान से नई पीढ़ी का भावी मार्गदर्शन होता है, इसलिए उनकी महत्ता की सेवा से अक्षुण्ण रखा जाता रहा का सचमुच ध्यान रखना कर्त्तव्य चाहिए । उनके शारीरिक सुख और सुविधा का तो पूरा-पूरा ही ध्यान रखा जाना चाहिए और यदि उनका कोई सुझाव या आदेश व्यावहारिक न हो तो कम से कम, अपमान के शब्दों में प्रत्युत्तर तो नहीं ही देना चाहिए, ऐसे प्रसंगों पर चुप हो जाने से तात्कालिक झंझट उत्पन्न होने से रोका जा सकता औचित्य और आज्ञा के धर्म-संकट में जो उचित है, जो धर्म है, जो कर्त्तव्यन है उसे ही प्रधानता दी जानी चाहिए । वृद्ध पुरुष बड़े हैं, पर धर्म और कर्त्तव्य, उससे भी बड़ा है। बड़ों का आदेश पालन किया जाना चाहिए, पर विवेक की पुकार उससे भी पहले सुनी जानी चाहिए । व्यामोह यदि वृद्धों कलेवर में प्रवेश करके बोले तो उस से पूर्व औचित्य का ध्यान आवश्यक है, फिर चाहे वह बालक के मुख से ही उच्चारित हुआ हो । आयु वृद्धि से ज्ञान वृद्धि बड़ी है । आयु का महत्व निश्चय ही है, पर विवेक से बढक़र उसकी महत्ता स्वीकार नहीं की जा सकती । बड़ों की सभी बातें हम मानें, उनको सभी प्रकार सुखी-सतुंष्ट बनाने का प्रयत्न करे, पर जब वे अनैतिक, असंगत अविवेकपूर्ण आदेश देने लगें तो उसकी पूर्ति के लिए तत्परता दिखाना आवश्यक नहीं । वृद्धावस्था की प्रतिष्ठा ज्ञान, विवेक, धर्म और दूरदर्शिता के कारण ही होती है । यदि ये तत्व उनमें न रहें तो, वृद्ध पुरूष न रहकर बूढ़े आदमी मात्र रह जाते हैं । हमें वृद्ध पुरुषों तथा गुरुजनों का को ही प्रधानता दी जानी चाहिए । पिता अपने ही व्यवसाय में यदि ऐसा ही है । गुरुजनों की सेवा, शिक्षा माना गया है । वैसा ही हमें करना भी और आज्ञा है । के सम्पूर्ण अनुगमन करना चाहिए, पर यह जरूरी नहीं कि सफेद बालों के कारण विवेकहीन बूढ़े आदमी भी हमारे मार्गदर्शक बनें । -पं. श्रीराम शर्मा आचार्य युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (२.१६) | Many times the elders insist that children should do this and do that, but such adamant expectation is against all appropriateness, against religion and duty. Under the situation,we have to choose between the elders’ advice on one hand and what is right for us, on the other hand. On facing such a dilemma, preference is always to be given to the religion, to the right and to our duty. A father wants to employ his children in his own trade, but the talent and aptitude of the children make them comfortable in quite another direction. Is it proper to sacrifice children’s ambitions just due to predominance of the elders’ systems? Had that been the trend, then almost all great men of the world would have been miserable persons obediently running their trivial ancestral businesses.
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work Yug Nirman Yojana – The Vision, Structure and the Program – 66 (2.16) |