स्वार्थ और परमार्थ का रहस्य | Demystifying the mystery of ‘self’-interest vs. ‘Self’-interest |
स्वार्थ और परमार्थ में बहुत थोड़ा-सा अन्तर है । स्वार्थ उसे कहते हैं जो शरीर को तो सुविधा पहुँचाता हो पर आत्मा की उपेक्षा करता हो । चूँकि हम आत्मा ही हैं, शरीर तो हमारा वाहन या उपकरण मात्र है इसलिए वाहन या उपकरण को लाभ पहुँचे किन्तु स्वामी दु:ख पावे तो ऐसा कार्यक्रम मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा । इसके विपरीत परमार्थ में आत्मा के कल्याण का ध्यान प्रधान रूप से रखा जाता है । आत्मा के उत्कर्ष होने से शरीर को सब प्रकार सुखी एवं सन्तुष्ट रखने वाली आवश्यक परिस्थितियाँ अपने आप उपस्थित होती रहती हैं, केवल अनावश्यक विलासिता पर ही अंकुश लगता है । फिर भी, यदि कभी ऐसा अवसर आयें कि शरीर को कष्ट देकर आत्मा को लाभ देना पड़े तो उसमें संकोच न करना ही बुद्धिमानी है, यही परमार्थ है । परमार्थ का अर्थ है परम स्वार्थ । -पं. श्रीराम शर्मा आचार्य युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-६६ (२.६८) | Literary speaking, there is a very little difference between the terms selfish self-interest and selfless Self-interest (apart from the subject each pertains to). Any action or thing that gives comfort to the body but ignores the soul can be regarded as selfish self-interest.
Translated from - Pandit Shriram Sharma Acharya’s work Yug Nirmaan Yojanaa: Darshan, swaroop va kaaryakram 66:2.68 |