Shri Smarth Rahul has posted this very informative essay on some core Advaitic aspects.
============== भेदवादी प्रलाप भंजन ==============
भेदवादी :- परिणामवाद_विवर्तवाद
श्रीराम!
ये दोनों शब्द दर्शन जगत् में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, व इनको लेकर पर्याप्त उहापोह भी हुएहैं/होते रहते हैं। यहाँतक कि इनको ही अधिकृत करके सम्प्रदायों का विभाजन भी हुआहै। इसी के कारण ही निर्विशेषाद्वैत और सविशेषाद्वैत जैसे धुर विरोधी सिद्धान्त दिखाई देतेहैं। अतः इनके विषयमें कुछ प्रकाश डालतेहैं:--
परिणामवाद :-- कारण के समान सत्तावाले अन्यथाभाव( परिवर्तन)को परिणाम कहा जाता है--समसत्ताकोन्यथाभाव: परिणामः।
विवर्तवाद:--कारण (उपदान)से विषम सत्तावाले अन्यथाभावको विवर्त कहा जाताहै। मिट्टीसे घट उत्पन्न होताहै, बीजसे बृक्ष उत्पन्न होताहै। मिट्टीसे घड़ा बनने में चेतन कुम्हार घड़े से बाहर रहताहै, इसलिये वह निमित्त मात्र होताहै। बीज बृक्ष जैसे स्थलोंमें चेतन भीतर रहताहै।अन्दर रहनेवाले चेतनकी यह विशेषता होती है कि वे विविध विचित्र परिणामोंको करते रहतेहैं।आमके वृक्ष में दिया गया गोबर खाद पानी आदि मधुर फलके रूपमें परिणत होताहै। वही नींबू आदि में अम्ल फलरूपमें परिणत होताहै। इस प्रकार अन्दर प्रविष्ट चेतन आत्माकी विचित्र शक्तिके कारण ही --आत्मनि_चैवं_विचित्राश्च हि (ब्र.सू.२-१-२८)यह सूत्र बनाया गयाहै। पूर्वोक्त परिणाम सामान्य नहीं वल्कि विलक्षण (विविध) परिणाम है । वि= विविध, विलक्षण ,वर्त= परिणाम। इस प्रकार विलक्षण परिणाम को विवर्त कहतेहैं। विवर्तवादमें कारण गत दोष अथवा गुण कार्यमें नहीं आते। फिर भी उपादान उपादेय भाव बना ही रहताहै। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जहाँ सामान्य जन को कार्यमें कारणकी प्रत्यभिज्ञा नहीं होती है, वहाँ विवर्त होताहै । जहाँ कार्यमें कारणकी प्रत्यभिज्ञा होती है, वहाँ परिणाम होताहै । अतः "अग्निसे जल उत्पन्न हुआ " -अग्नेरापः(तै.उ.२-१-१) इस प्रकार अग्निको जलक़ा उपादान कहा जाताहै। यहाँ कार्य शीत गुण वाले जलमे कारण उष्णगुण वाली अग्नि की प्रत्यभिज्ञा सम्भव नहीं होतीहै, अतः ऐसे स्थलों में परिणाम विशेषके वाचक विवर्त शब्दका प्रयोग किया जा सकताहै। ज्ञानी की दृष्टिमें सब परिणाम ही है इसी लिए श्री शंकराचार्यजीने स्वतः साङ्ख्यसिद्धान्तका अनुवाद करतेहुए--त्रिगुणं_प्रधानं_स्वभावेनैव_विचित्रेण_विकारात्मना_विवर्तते (ब्र. सू. शां भा.-२-२-१) इस प्रकार परिणाम अर्थके बोधक "परिणमते" के स्थान पर विवर्त अर्थ के बोधक "विवर्तते "पदका प्रयोग कियाहै। वाचस्पतिमिश्र भी इसका अनुमोदन करतेहैं। इन दोनों के पूर्ववर्ती भर्तृहरिने--
विवर्तते_अर्थभावेन_प्रक्रिया_जगतो_यतः(वाक्य.प.१-१) तथा शब्दस्य_परिणामोयमित्याम्नायविदो_विदुः(वाक्य.प.१-१२०) इस प्रकार विवर्त और परिणाम शब्दका एक ही अर्थमें प्रयोग कियाहै। महाकवि भवभूतिने भी --पृथगिवाश्रयते_विवर्तान् ... आवर्तबुद्बुदतरंगमयान् विकारान् (उत्तर रा.च ३-४७) में एक ही श्लोकमें एक ही दृष्टान्तमें परिणाम अर्थके बोधक विवर्त शब्दका प्रयोग कियाहै। विवर्तवाद अध्यास या मिथ्यात्ववाद है, यह आधुनिकों का मत है।
।।नमो वेदान्तावेद्याय।।
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समाधान :- वादी ने पहले कहा - // कारण से समसत्तावाले अन्यथाभाव = परिणाम // और // कारण से विषम (न्यून) सत्तावाले अन्यथाभाव = विवर्त // ।
फिर कहा गया - // विविध (विचित्र) परिणाम = विवर्त // ।
तो निष्कर्ष यह निकला - // विविध / विचित्र कारण-समसत्ताक अन्यथाभाव = कारण-विषमसत्ताक अन्यथाभाव । //
अर्थात् विविधता / विचित्रता / विशेषता हो तो कारण-समसत्ताक अन्यथाभाव वस्तुतः कारण-न्यूनसत्ताक अन्यथाभाव हो जाता है ! अब वादी स्वयं ही स्पष्ट करे कि तात्पर्य क्या है तथा ऐसा अभिनव सिद्धान्त इन्हें कहाँ से मिला !
वैसे हमारे मत में तो कार्य की अपेक्षा कारण का अधिकसत्ताक और विशेषरहित होना मान्य ही है ।
आगे वादी लिखते है - // इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जहाँ सामान्य जन को कार्यमें कारणकी प्रत्यभिज्ञा नहीं होती है, वहाँ विवर्त होताहै । जहाँ कार्यमें कारणकी प्रत्यभिज्ञा होती है, वहाँ परिणाम होताहै । //
सामान्य लोग किसे कह रहे हो ? विचारबुद्धिरहित लोग ? जिनके विषय में पञ्चदशीकार कहते है -
पृथ्व्यादि विकारान्तं स्पर्शादिं चापि मृत्तिकाम् ।
एकीकृत्य घटं प्राहुर्विचारविकला जनाः ॥
~पञ्चदशी , अध्याय १३ , ३३
ऐसे लोगों से हमे कोई लेना देना नहीं ! किन्तु विचारबुद्धिसंपन्न (अद्वैती) लोगों का कथन है -
कारणमात्र सत् है , कार्य उससे न्यूनसत्ताक होनेसे कारणापेक्षा मिथ्या है ।
घट मृत्तिका से भिन्न है अथवा अभिन्न ?
मृत्तिका से घट को पृथक कोई कर नहीं सकता और मृत्पिंड दशा में घट दीखता भी नहीं !
क्या घट मृत्तिका में पहले से विद्यमान है अथवा अविद्यमान ?
विद्यमान हो तो घटोत्पादन हेतु प्रयत्न क्यों करना और अविद्यमान हो तो असत् घट का मृत्तिका से कोई सम्बन्ध न होनेपर दुनियाभर का कार्य घटोत्पादन के समय ही उत्पन्न होना चाहिए था !
कार्यविशेषोत्पादिनी शक्ति से संपन्न कारण की बात करो तो वह शक्ति असत् कार्य को नियमन कैसे करेगी ! अतः असत् शक्तिपक्ष तो संभव नहीं । और शक्ति से सत्त्कार्य की अभिव्यक्तिमात्र मानोगे तो वह अभिव्यक्ति पहले से सत् था अथवा असत् - इसका निर्वचन कैसे होगा !
शक्तिमान (कारण) से शक्ति की पृथक सत्ता नहीं हो सकती । शक्ति और कारण अभिन्न भी नहीं, अन्यथा प्रतिबंधक विद्यमान होनेपर शक्ति का बाध होना कैसे संभव होगा !
इसप्रकार अनिर्वचनीय घटादि नामरूपात्मक कार्यमात्र उपादान मृत्तिका में अध्यस्त होनेसे तदपेक्षा न्यूनसत्ताक ( मिथ्या ) सिद्ध होता है - यही है #विवर्तवाद / #सत्कारणवाद ! पूर्वावस्था परित्याग किये बिना ही अन्यावस्थाप्रतीति का नाम विवर्त है - अतात्त्विक (कारणापेक्षा न्यूनसत्ताक) अन्यथाभाव । विवर्तोपादान को अधिष्ठान कहते है और उपादेय को अध्यस्त । कारणापेक्षा न्यूनसत्ताक होना ही कार्य का #मिथ्यात्व है ।
इसपर आपत्ति होती है - यदि घटादि कार्यमात्र अध्यस्त है, तो मृत्तिकाज्ञानमात्र से रज्जुसर्पनिवृत्तिवत् घटनिवृत्ति क्यों नहीं हो जाती है ?
तो इसका उत्तर है - घटनिवृत्ति तो होती ही है , क्योंकि घट का सत्यत्वज्ञान तिरोहित होना ही घटनिवृत्ति है । घटप्रतीति न होना घटनिवृत्ति का अर्थ नहीं । #सोपाधिक_भ्रमस्थल अर्थात् विलक्षण (#कार्यकालवृत्ति) निमित्तरूप उपाधि सहित अज्ञानजन्य भ्रमस्थल में अध्यस्त वस्तु का सत्यत्वज्ञाननाशरूपनिवृत्ति स्वीकृत होती है , #निरुपाधिक_भ्रमस्थल की तरह स्वरुप की अप्रतीतिरूप निवृत्ति मान्य नहीं होती ।
ध्यातव्य है कि कारण और कार्य यदि समसत्ताक हो तो कार्य (उपादान) के विकारी हुए बिना कार्योत्पत्ति कदापि संभव नहीं ! जो विकारी होगा वह विनाशी भी होगा ।
यदि कहा जाय कि सम्बन्धाभावावस्थाप्रच्युति होनेसे सहकारी का सम्बन्ध होना ही विकार है ?
तो इसका उत्तर है - उक्त पारिभाषिक विकार कार्यप्रयोजक नहीं है । दहीका सम्बन्ध होनेके बाद दूधमें पृथक विकार होता है । तब दही उत्पन्न होता है । केवल जल का सम्बन्धमात्र से बीज अंकुरित नहीं होता, उसके लिए बीजमें पृथक विकार होता है ।
वह सहकारिसम्बन्ध सत्कारण से असम्बद्ध होकर तो कार्योत्पादन नहीं कर सकता ! अतः तदुत्पादानार्थ सत्कारण में पुनः विकार मानना पड़ेगा - इस रीति से अनवस्था होगी !
यदि कहा जाय - प्रामाणिक अनवस्था मानने में दोष नहीं । तो इसका उत्तर है - अनवस्था प्रमाणिक ही नहीं है । किसीको अनन्त सम्बन्ध अनुभवमें नहीं आता और युक्तिसिद्ध भी नहीं । क्योंकि अनन्त सम्बन्ध होनेपर सत्सम्बंध सिद्ध नहीं होता । अतः सम्बन्धान्तर बोलते ही रह जायेंगे !
वादी ने जो यह कहा - // ज्ञानी की दृष्टिमें सब परिणाम ही है । //
- यह भी कोरी बकवास है । ज्ञानी के लिये मृगमरीचिका, शुक्तिरजत इत्यादि अधिष्ठान-समसत्ताक है क्या ? फिर ज्ञानी की भ्रमनिवृत्ति तो होगी ही नहीं ! ज्ञानी की दृष्टि में जगत् किसका परिणाम है ? ब्रह्म का परिणाम तो हो नहीं सकता, क्योंकि तब ब्रह्म विकारी, अतः विनाशी सिद्ध होगा । अविकारी ब्रह्म का जगदाकार परिणाम होना संभव ही नहीं ।
#निष्कलं_निष्क्रियं_शान्तं_निरवद्यं_निरञ्जनम् - श्रुति से ब्रह्म में क्रियारूप अवयव का निषेध स्पष्ट है । निरवयव सत्ता में आपके मान्यतानुसार दूधकी दधीरूप प्राप्ति के समान परिणाम होना तो युक्ति द्वारा त्रिकाल में सिद्ध करना संभव नहीं ! किन्तु निरवयव का एकमात्र विवर्त होना ही संभव है , और कुछ नहीं - जैसे आकाश में नीलिमाध्यास , अधोमुख कटाहतलाध्यास देखा जाता है ।
अतः जगत् ब्रह्मविवर्त और अज्ञानपरिणाम - यही वास्तविक सिद्धान्त है । अज्ञान निरवयव-विलक्षण होनेसे उसका परिणाम होना युक्तिसंगत है ।
यह जो वादी ने कहा - // शंकराचार्यजीने स्वतः साङ्ख्यसिद्धान्तका अनुवाद करते हुए -- त्रिगुणं_प्रधानं_स्वभावेनैव_विचित्रेण_विकारात्मना_विवर्तते (ब्र. सू. शां भा.-२-२-१) //
उत्तर - यहाँ विवर्तते पाठभेद अशुद्ध है , सटीक पाठ है #प्रवर्तत । भाष्यरत्नप्रभा , भामतीत्यादि टीका में भी #प्रवर्तत कहा गया है ।
यदि मान लिया जाय कि भर्तृहरि जैसे प्राचीन आचार्यों के समय परिणाम और विवर्त -यह दोनों पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त होते थे, तो भी -
१. भर्तृहरि के मत में शब्दपरिणाम जगत् शब्दापेक्षा न्यूनसत्ताक है , न कि समसत्ताक ! ब्रह्मकाण्ड की प्रथम कारिका की #स्वोपज्ञ टीका में भर्तृहरि ने ' विवर्तते ' पद की विवर्तपरक व्याख्या की है ।
२. वाक्यपदीय में अधिकांश स्थलों पर विवर्त पद का प्रयोग हुआ है ।
३. वाक्यपदीय के सभी टीकाकारों ने विवर्तवाद को ही भर्तृहरि का सिद्धान्त मानते है #होलाराज ने तो स्पष्ट कहा है कि भर्तृहरि का दर्शन सांख्यसिद्धांत जैसा परिणामवाद नहीं , अपितु विवर्तवाद है ।
४. #रघुनाथ_शर्मा अम्बाकर्त्री टीका में " #विवर्ततेsर्थभावेन " पद की व्याख्या में कहा है - अपना स्वरुप से च्यूत न होकर किसी अन्य अर्थ में प्रतीत होना विवर्त है ।
५. सर्वदर्शनसंग्रहकार ने भी भर्तृहरि को शब्दविवर्तवादी माना है ।
इसप्रकार #कार्यमिथ्यात्व सिद्धान्त को लेकर भर्तृहरि जैसे प्राचीन आचार्य के साथ हमारा कोई विरोध नहीं , अपितु सांख्यसम्मत परिणामवाद के साथ ही विरोध है !
अन्तिम बात यह है कि हम अद्वैतवादी भी व्यवहारिक दृष्टि से यद्यपि #सत्कार्यवाद मानते है, किन्तु यह विशेष है -
सांख्यपातंजलसम्मत सत्कार्यवाद के समान हम कार्योत्पत्ति से पूर्व कार्य को कारण में अव्यक्तरूप से विद्यमान नहीं मानते । किन्तु कार्योत्पत्ति से पूर्व कारण में कार्य कारणात्मकरूप से अवस्थान करता है - ऐसा मानते है ।
// तत्रेदमभिधीयते समाननामरूपत्वादिति । तदापि संसारस्यानादित्वं तावदभ्युपगन्तव्यम् । //
~ ब्रह्मसूत्रभाष्य १.३.३०
// प्रलीयमानमपि चेदं जगच्छक्त्यवशेषमेव प्रलीयते ; //
~ ब्रह्मसूत्रभाष्य १.३.३१
// द्रव्यारम्भ एवानेकारम्भकत्वनियम इति चेत् , न ; परिणामाभ्युपगमात् । //
~ ब्रह्मसूत्रभाष्य २.३.७
शांकर वेदान्त में सगुणोपासना की दृष्टि से #परिणामवाद मान्य होता है -
// अप्रत्याख्यायैव कार्यप्रपञ्चं परिणामप्रक्रियां चाश्रयति सगुणेषूपासनेषूपयोक्ष्यत इति ॥ //
~ ब्रह्मसूत्रभाष्य २.१.१४