सत्यम् वदामि

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जयप्रकाश मानस

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May 31, 2007, 3:14:11 PM5/31/07
to Panini पाणिनि
आदरणीय फिलिप जी,

पाणिनि के बारे में जानकर मुझे बहुत ही अचरच हुआ कि अंतरजाल पर
परिनिष्ठित हिंदी के लिए कोई दधीची अवतरित हो चुका है । आपके विचारों से
मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई है । आज हिंदी हिंदी नहीं रही । वह अंग्रिंदी
हो चुकी है । उच्चारण, लेखन और आम व्यवहार में क्या भाषाशास्त्री, क्या
विद्यार्थी, क्या गृहिणी और क्या आम जन सभी उसे तोड़-मरोड़ कर घसीट रहे
हैं जैसे वह मातृभाषा नहीं कोई आततायी वाणी हो । और इसी बहाने वे अपमान
कर सकते हैं । मीडिया की ओर निहारें तो वहाँ भी हिंदी को बाजार की भाषा
बना कर विकृत किया जा रहा है । अजीब-अजीब शीर्षक लगा रहे हैं संपादक गण ।
इधर अंतरजाल पर किसी आलोचना तंत्र के न होने और आचरण संहिता की
अनुपलब्धता से लगभग नये लिखने वाले बलात्कार की मुद्रा में हैं । कि कौन
कितने वीभत्स ढंग से हिंदी को नोंच सकता है । इसमें हिंदी के चिट्ठाकारों
को अलग नहीं किया जा सकता है ।

आपके निर्धारित उद्देश्यों के प्रति मैं बड़ी ही आशा से निहार रहा हूँ ।
मैं निश्चय ही आप जैसे हिंदी सेवियों के साथ जुड़ना चाहूँगा । मैं आपके
साथ इस महायज्ञ में कुछ कर सका तो मेरा अहोभाग्य होगा ।

जयप्रकाश मानस
www.srijangatha.com

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