कोदो, कुटकी, सावा, सलहार, मंडिया, कांग, ज्वार को लघु धान्य या मोटा
अनाज कहा जाता है. कृषि विश्व विद्यालय के सरकारी वैज्ञानिक भी अब मान
रहें है की इन अनाजों में प्रोटीन, कैल्शियम जैसे सूक्ष्म पौष्टिक तत्व
से भरपूर है. जब यह अनाज प्रोटीन का खजाना है तो फिर इन अनाजों को मोटा
अनाज के बजाये पौष्टिक अनाज नहीं बोला जाना चाहिए? अगर ऐसा हुआ तो हरित
क्रांति के जनक और धान, गेंहू का सम्मान कम हो जायेगा. हरित क्रांति के
दौर में यही सरकारी वैज्ञानिकों ने धान, गेंहू, सोयाबीन को बढ़ाने और बहु
राष्ट्रीय खाद, बीज कंपनियों को फायदा पहुचाने के लिए इन पौष्टिक अनाजों
को मोटा अनाज बोल कर ही पीछे धकेल दिया गया. एक तरह से इन पौष्टिक अनाजों
को समाप्त करने का ही साजिश था. परन्तु आदिवासी समाज ने इन अनाजों के
पौष्टिक गुणों और उपयोगिता भोजन सुरक्षा की अहम् जरुरत को देखते हुए ही
अब तक इन कोदो कुटकी जैसे पौष्टिक अनाज को बचाकर रखा है. अब कृषि विश्व
विद्यालय के सरकारी वैज्ञानिकों को चिंता होने लगा है की इन पौष्टिक
अनाजों का उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए. आज अगर यह अनाज कही दिखता है तो
सिर्फ आदिवासियों के खेतों में ही दिखता है. इन अनाजों के लिए ये आदिवासी
लोग न किसी तरह का उपरी खाद, किसी तरह का उर्जा, और न ही ऊपर से पानी का
इस्तेमाल करते है. यह अनाज पूरी तरह से बरसात के पानी से ही होता है. इन
पौष्टिक अनाजों को बचाते हुए ये आदिवासी समाज ने कृषि आधारित जैव विविधता
बचाकर, पानी, बिजली और रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर का उपयोग नहीं करके
ग्लोबल वार्मिंग और मौसम परिवर्तन के प्रभाव को कम करने का काम किया है
तो क्या इन आदिवासी समाज को बोनस नहीं मिलना चाहिए? पर बोनस इन्हें क्यों
मिलेगा क्योंकि ये तो आदिवासी है किसान थोड़े ही है, किसान तो वे है जो
धान, गेंहू, गन्ना, सोयाबीन की खेती करते है और अधिक से अधिक पानी का
इस्तेमाल करके भूमिगत जल भंडार को ख़तम कर रहे है, अत्यधिक उर्जा और
रासायनिक खाद एवं कीट नाशक जहर के उपयोग से ग्रीन हाउस गैस को बढ़ाने का
काम करते है-बोनस तो इन्हें मिलना चाहिए?
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