PMOPG/E/2025/0191873
संबंधित मंत्रालय : विधि व न्याय - महान्यायाभिकर्ता।
सन 2004 में सर्वोच्च न्यायालय ने ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण के संदर्भ में अपने एक आदेश में स्पष्ट निर्देश दिए थे की रात्रि 10 से प्रातः 6 तक आवासीय क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के ध्वनि विस्तारक यंत्र का प्रयोग पूर्णतया निषिद्ध है। किंतु आज 21 वर्ष पश्चात भी इस आदेश को पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका है तथा मस्जिदें इस आदेश की प्रमुख व सर्वत्र उल्लंघन कर्ताओं में हैं। वे प्रखरता से इस उल्लंघन को अपना अधिकार बताते हैं। जहां से अजान के लिए प्रतिबंधित समय में उच्च स्वर में नित्य भोंपू बजाया जाता है।
अचरज की बात है की मुस्लिम धर्म से सम्बंधित अन्य अनेक प्रकरणों में जैसे की, वक्फ बोर्ड, अवैध दरगाह के धवस्तिकरण, अतिक्रमण कर बनाई हुए मजार, बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए, रोहिंग्या घुसपैठिए, आतंकवादियों के मानवाधिकार इत्यादि के सम्बन्ध में यही पक्ष तुरंत सर्वोच्च न्यायालय गुहार लगाने पहुँच जाता है. अगर न्यायिक आदेश से इतना लगाव है तो ध्वनि प्रदुषण वाले आदेश को मानने से इनकार क्यों?
यह आँखों के सामने बिलकुल स्पष्ट रूप से चली जाने वाली एक समाज विरोधी चाल है.
अभी गत सप्ताह ही महाराष्ट्र उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के समक्ष फिर यही मुद्दा आया जिसमें मस्जिद प्रबंधन ने भोंपू बंद करने से इनकार कर दिया. सम्पूर्ण राष्ट्र में यह समस्या दृष्टिगोचर है. यह ‘ऑन रेकॉर्ड’ है की इस प्रकार से भोंपू बजाना किसी भी इस्लामी ग्रंथ में अनुमोदित नहीं है। और ये इस्लामिक मान्यताओं के विरुद्ध है। सबसे बड़ा उदाहरण, सऊदी अरब जैसे एक कट्टर मुस्लिम राष्ट्र का है जहां सभी प्रकार के भोंपुओं पर प्रतिबंध है।
विरोधाभास यह है की सभी प्रकरणों में वादी एक ही होता है पर कहीं तो वो सर्वोच्च न्यायालय में न्याय की गुहार लगाने आता है और कहीं वो पहले से लिए गए निर्णय को मानने से इनकार करता है? यह पक्ष सब कुछ अपने हिसाब से चाहता है।
अतएव मेरा अनुरोध है की भारत के महान्यायाभिकर्ता बात पर विचार करें की तथा उचित समझें तो यह सुनिश्चित करें की अदालत में जब कभी भी मुस्लिम पक्ष से सम्बंधित कोई भी प्रकरण हो तो वे ध्वनि प्रदुषण वाले उल्लंघन के बारे में जोर देकर कोर्ट को अवश्य अवगत कराएं. चूँकि सभी मामलों में वादी एक ही है, यह कदम तर्क संगत होगा।