Fwd: [वैश्विक हिंदी सम्मेलन ] देश के नाम पर नई बहस: सांस्कृतिक बोध और मूल्य की दृष्टि से ‘भारत’ नाम अधिक सार्थक है।- प्रो. निरंजन कुमार। झिलमिल में कुछ विचार।

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डॉ एम एल गुप्ता (Dr. M.L. Gupta)

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Jun 14, 2020, 2:43:27 AM6/14/20
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देश के नाम पर नई बहस: सांस्कृतिक बोध और मूल्य की दृष्टि से 

‘भारत’ नाम अधिक सार्थक है।

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प्रो. निरंजन कुमार 

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई कि देश का नाम इंडिया के बजाय केवल भारत किया जाना चाहिए। अदालत ने इस पर कोई फैसला तो नहीं सुनाया, लेकिन याचिकाकर्ता से कहा कि वह इस मामले में सरकार के समक्ष आवेदन कर अपने तर्क प्रस्तुत करें। फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि इसका क्या नतीजा निकलेगा, परंतु इतना जरूर है कि इसने एक नई बहस अवश्य छेड़ दी है। वास्तव में किसी राष्ट्र या क्षेत्र का नाम सामान्य नामकरण मात्र नहीं होता, बल्कि एक सांस्कृतिक विमर्श होता है। यह राजनीतिक समाजशास्त्र का भी हिस्सा होता है। इस मामले में याचिकाकर्ता की भावनाओं से भी इसी भाव का प्रकटीकरण हो रहा है। उनका कहना है कि चूंकि इंडिया शब्द से गुलामी का भाव झलकता है तो उसके स्थान पर देश का नाम केवल भारत या हिंदुस्तान होना चाहिए। अपने देश के अतीत में तमाम नाम प्रचलित रहे हैं। इसे जंबूद्वीप, भारत, आर्यावर्त, हिंदुस्तान, इंडिया आदि नामों से पुकारा गया। हालांकि वर्तमान में केवल तीन नाम इंडिया, भारत और हिंदुस्तान ही चलन में हैं।

इंडिया शब्द ग्रीक भाषा से आया, ‘इंडिया’ शब्द में ब्रिटिश गुलामी की गंध छिपी : सबसे पहले इंडिया शब्द की थाह लेते हैं। यह ग्रीक भाषा से आया है। ईसा से चौथी पांचवीं सदी पूर्व ग्रीक लोगों ने सिंधु नदी के लिए इंडस शब्द प्रयोग किया जो बाद में इंडिया बन गया। ग्रीक से यह दूसरी सदी में लैटिन में आया। यहां इसका व्यापक प्रयोग 16 वीं -17 वीं सदी में अंग्रेजों द्वारा ही हुआ। यानी यह शब्द पश्चिमी अथवा अंग्रेजी औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की देन है। इतिहासकार इयान जे. बैरो ने अपने लेख 'फ्रॉम हिंदुस्तान टू इंडिया नेमिंग चेंज इन चेंजिंग नेम्स' में लिखा- '18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ब्रिटिश नक्शों में 'इंडिया' शब्द प्रयोग होना शुरू हुआ। इंडिया को अपनाने से पता चलता है कि कैसे औपनिवेशिक नामकरण ने नजरियों में बदलाव किया और इस उपमहाद्वीप को एक एकल, परिसीमित और ब्रिटिश राजनीतिक क्षेत्र की समझ बनाने में मदद की।  इस प्रकार 'इंडिया' शब्द में ब्रिटिश गुलामी की गंध छिपी है।

 वहीं 'इंडिया' शब्द इस देश के किसान मजदूरों या अन्य मेहनतकश लोगों को स्वयं में समाहित करता नहीं दिखाई पड़ता   ये लोग अपनी माटी और संस्कृति के साथ गहराई से जुड़े हैं। जबकि इंडिया और इंडियन से हमें ऐसे लोगों या वर्ग का बोध होता है जो शक्ल व सूरत में भले ही देश के अन्य लोगों की तरह हों, पर अपने व्यवहार, बोली और संस्कति में मानों पश्चिम की फोटोकॉपी हों। सांस्कृतिक धरातल या अर्थवत्ता की दृष्टि से भी इंडिया शब्द से इस देश की मिट्टी से जुड़े किसी सांस्कृतिक बोध या अर्थवत्ता का परिचय नहीं मिलता

 हिंदू शब्द धर्म का पर्याय नहीं था, हिंदू या हिंदुस्तान शब्द विशुद्ध रूप से पंथनिरपेक्ष शब्द था :  दूसरा प्रचलित शब्द है 'हिंदुस्तान' जिसका उद्गम भी सिंधु नदी से ही हुआ है। असल में ईरानी लोग '' का उच्चारण नहीं कर पाते थे और उसे '' कहते थे।  इसीलिए प्राचीन ईरानी लोगों ने सिंधु को हिंदु कहा। अति प्राचीन पुस्तक 'नक्श ई - रुस्तम' में उल्लेख है कि ईरान के एक शासक डारीयस ने इस क्षेत्र को हिंदुश कहा। प्राचीन ईरानी भाषा अवेस्ता में 'स्थान' के लिए 'स्तान' शब्द मिलता है।  इस प्रकार यह प्रदेश हिंदुस्तान कहा जाने लगा और यहां के निवासी हिंदू।  इस प्रकार हिंदू शब्द धर्म का पर्याय नहीं था।  हिंदू या हिंदुस्तान शब्द विशुद्ध रूप से पंथनिरपेक्ष शब्द थे। वैसे हिंदुस्तान मुख्य रूप से उत्तर भारत के लिए इस्तेमाल होता था। बाद में मुगल शासकों ने भी अपने साम्राज्य को हिंदुस्तान कहकर पुकारा।  हालांकि आजादी की लड़ाई में मुहम्मद अली जिन्ना और उनके साथियों ने अपने 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' को सिरे चढ़ाने के लिए इसके अर्थ को विरूपित किया। उनका कहना था कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है

आजादी की लड़ाई में मुहम्मद अली जिन्ना ने 'हिंदुस्तान’ के अर्थ को किया विरूपित: हालांकि आजादी की लड़ाई में मुहम्मद अली जिन्ना और उनके साथियों ने अपने 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' को सिरे चढ़ाने के लिए इसके अर्थ को विरूपित किया। उनका कहना था कि हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है, लिहाजा मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान चाहिए। इस तरह एक पंथनिरपेक्ष शब्द 'हिंदुस्तान' को एक धर्म से जोड़ दिया गया।  

अनुच्छेद 1 (1) में ‘इंडिया’ अर्थात ‘भारत’, 'हिंदुस्तान’ शब्द को जगह नहीं मिली  ऐसे में यह अनायास नहीं था कि जब देश का संविधान बना तो उसके पहले ही अनुच्छेद 1(1) में कहा गया कि 'इंडिया' अर्थात 'भारत', राज्यों का एक संघ होगा।  यहां 'हिंदुस्तान' शब्द को जगह नहीं मिली।  हालांकि इंडिया शब्द को अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण था।  शायद इसके पीछे औपनिवेशिक शासन का मनोवैज्ञानिक दवाब रहा होगा। दुर्भाग्यवश इसी दबाव के कारण ही अनुच्छेद 343 के तहत हिंदी के साथ - साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा बना दिया गया।  इसी पश्चिमी - औपनिवेशिक मानसिकता का ही दबाव है कि अभी भी हमारे अधिकांश आध्यात्मिक - बौद्धिक विमर्श, संकल्पना और सैद्धांतिकी पश्चिमी हैं या फिर पश्चिम से प्रभावित । अच्छी बात यह है कि आज वह दवाब खत्म होता दिख रहा है। अब समय आ गया है कि हम भारत को भारतीय चश्मे से ही देखें। फिर अगर विदेशी के बजाय भारतीयता के आलोक में विचार करें तब भी नाम की दृष्टि से अपने देश के लिए 'भारत' नाम ही सबसे सार्थक लगता है।



ऋग्वेद से लेकर ब्रह्म पुराण और महाभारत में भारत या भारतवर्ष का उल्लेख है :  एक तो यह तीनों नामों में यह सर्वाधिक प्राचीन है। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद से लेकर ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण और महाभारत में इस भौगोलिक क्षेत्र के नाम के रूप में भारत या भारतवर्ष का उल्लेख है। हमारे स्वाधीनता आंदोलन का सबसे अधिक भावात्मक नारा भी 'भारत माता की जय' ही था और हमारे राष्ट्रगान में भी सिर्फ 'भारत' नाम का ही उल्लेख है। 

मूल्य की दृष्टि से ‘भारत’ नाम कहीं अधिक अर्थवान है: अर्थ विज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह शब्द संस्कृत के 'भ्र' धातु से आया है जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, वहन करना, निर्वाह करना । इस तरह भारत का शाब्दिक अर्थ है जो निर्वाह करता है या जो उत्पन्न करता है। एक अन्य स्तर पर भारत का एक और अर्थ है ज्ञान की खोज में संलग्न। इस प्रकार अपने सांस्कृतिक बोध और मूल्य की दृष्टि से भी 'भारत' नाम कहीं अधिक अर्थवान है। इसके अलावा यह अभिधान अपने में सभी पंथ, समुदाय, जातीयता और वर्गों को भी समाहित कर लेता है । 

आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं  में इस देश को भारत, भारोत, भारता या भारतम कहा जाता है : इतना ही नहीं संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं पूरब की असमिया, मणिपुरी से लेकर पश्चिम की गुजराती, मराठी से लेकर दक्षिण की तमिल, मलयालम तक में इस देश को भारत , भारोत, भारता या भारतम आदि कहा जाता है। निःसंदेह सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक किसी भी धरातल पर 'भारत' नाम सर्वाधिक उपयुक्त है। कितना अच्छा होगा यदि हम अपने देश को सिर्फ 'भारत' पुकारें ।  

  प्रो. निरंजन कुमार  h  

(प्रो. निरंजन कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और उनका यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है, जो समसामयिक भी है और ज्ञानवर्धक भी।)



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भारत की बात आते ही इंडियावाले सक्रिय हो गए हैं। इंडिया के मुद्दे पर प्रीतिश  नंदी  ने एक लेख में ने काफी ऊटपटाँग लिखा है, जिसमें उनका अंग्रेजियत का चिरपरिचित गुमान झलकता है। बहुत पहले  एक बार  टीवी पर जब उन्होंने लता मंगेशकर का साक्षात्कार किया तो स्वर कोकिला, भारत-गौरव - लता मंगेशकर लगातार हिंदी में जवाब देती रहीं और ये जनाब अपनी अंग्रेजी की अकड़ के चलते एक शब्द भी हिंदी में नहीं बोले। इन्होंने अपने के अहंकार को अंग्रेजी को लता मंगेशकर से बहुत बड़ा बना दिया था।  ये महोदय तो सीधे कह रहे हैं कि "इंडिया आजाद हुआ था न कि भारत। और हां, मैं इंडिया में पैदा हुआ न कि भारत में। और मैं चाहता हूं कि यह ऐसा ही रहे।" अब आप समझ लीजिए ये क्या हैं?

मैंने पिछले कुछ दिन में, जब से भारत बनाम इंडिया का मामला चला है, मैंने यह देखा है कि इंडिया समर्थक अनेक लोग विशेषकर अंग्रेजीपरस्त, इस विषय का रुख मोड़ने के लिए इस प्रकार की बातें करने लगे हैं कि क्यों ना इसका नाम भारतवर्ष रखा जाए, अखंड भारत रखा जाए, हिंदुस्तान रखा जाए और आज प्रीतिश नंदी ने कहा कि देश का नाम मेलुहा या आर्यवर्त रखा जाए। इन सबका एक ही उद्देश्य है कि मामले को इतना उलझा दिया जाए कि इंडिया बना रहे।

राजभाषा के नाम पर हिंदी को लेकर भी यही कुछ हुआ था और नतीजा यह है कि अंग्रेजी चिरकाल के लिए भारत की अघोषित राजभाषा बन चुकी है। ये वही लोग हैं। इसलिए किसी छलावे में न आएं हमें कोई नया नाम रखना ही नहीं है हम तो केवल इंडिया शब्द को हटाने की बात कर रहे हैं।

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'

आज से लगभग 11000 वर्ष पूर्व ऋषभदेव पुत्र भरत हुए थे। उनका दूसरा नाम बाहुबली भी था। आज भी बाहुबली की विशाल मूर्ति कर्नाटक में है। बाहुबली नाम की फिल्म भी थोड़ा बहुत उस कहानी में अन्य बातें जोड़कर बनाई गई है जो अपनी ऐतिहासिक रूप से पूर्ण सत्य नहीं है लेकिन पूरी तरह झूठी भी नहीं है। वे सतयुग में हुए जबकि राम के भाई भरत और शकुंतला पुत्र भरत क्रमशः त्रेता युग एवं द्वापर युग में हुए। भारत का अर्थ है "जो सबका भरण पोषण करे" कितना अच्छा नाम लगता है। भारत ने सदियों तक दुनिया को खिलाया पिलाया है। यूरोप और अमेरिका आदि महाद्वीपों के देशों में कुछ पैदा ही नहीं होता था। तब तो इतने सारे यूरोपीय व्यापारी भारत आए, वह भी इतना जोखिम उठाकर समुद्र के रास्ते से। भारत यदि कंगाल होता तो वे क्यों आते। फिर वे ऋषभदेव के पुत्र भरत (न कि शकुंतला पुत्र भरत या राम के भाई भरत) के नाम पर भी है, जो विश्वविजयी हुए थे। उसमें एक गर्व की अनुभूति है।

अरुणी त्रिवेदी

वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई



siddhartha Journalist

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Jun 14, 2020, 3:26:14 AM6/14/20
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बहुत प्रासंगिक बहस है. इसे सार्थक मुकाम तक पहुंचाना चाहिए.

सादर 

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डॉ एम एल गुप्ता (Dr. M.L. Gupta)

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Jun 14, 2020, 1:39:32 PM6/14/20
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डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'
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