वन विभाग देश का सबसे बड़ा जमींदार है और वह अपनी जमींदारी नहीं छोड़ना चाहता है। वन अधिकार कानून 2006 लागू होने के साथ ही वन विभाग का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए था लेकिन सरकार की मंशा ही साफ नहीं है। वन विभाग के अधिकारी आदिवासियों को जंगल पर अधिकार इसलिए नहीं देना चाहते हैं क्योंकि वे टिंबर माफिया और पोचरों से मिलीभगतकर करोड़ो रुपये कमा रहे हैं। इतना ही नहीं वन विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को मुफ्त में लाखों रुपये की लकड़ी अपने घरों को सजाने के लिए मिलता है। इसलिए कोई क्यों पैसा उगने वाला पेड़ कटेगा? तीसरी बात यह है कि वनभूमि या वन पर उत्खनन करनेवाली कंपनियों से सरकार को भारी रकम राजस्व के रूप में फोरेस्ट क्लीयरेंस के समय मिलता है, जिसे सरकार किसी भी कीमत पर आदिवासियों के हाथ में जाने नहीं देना चाहती है। असल में जंगल खनिज पदार्थों से भरे पड़े हैं इसलिए आदिवासियों को अधिकार से वंचित रखा है।
यहां वन अधिकार कानून 2006 का औचित्य समझना जरूरी है। केंद्र सरकार ने पहली बार कानूनी रूप से स्वीकार किया कि आदिवासियों के साथ एैतिहासिक रूप से अन्याय हुआ है, इसलिए कानून द्वारा उन्हें न्याय देना इसका मूल मकसद था। अतीत में जीवन जीन के संसाधन खासकर जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदाय का अधिकार था। वे अपने रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए इनका उपयोग करते थे। अंग्रेज जब भारत आये तो उन्हें समझ में आया कि यहां प्राकृतिक संसाधनों का आकूत भंडार है, जिससे काफी पैसा कमाया जा सकता है, जिसके लिए उन्हें सत्ता पर काबिज होना जरूरी था। सत्ता हथियाने के साथ ही कानून को हथियार बनाकर संसाधनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया गया। सन 1793 में पहली बार ‘‘परमानेंट सेटलमेंट एक्ट’’ लाया गया, जिसने आदिवासियों की जमीन जमींदारों के हाथ में चली गयी। सन 1855 में जंगल पर भी कब्जा करने हेतु सरकारी नीति लायी गयी। यहां तक कहा गया कि जंगल सरकार की है और उस पर कोई व्यक्ति अपना अधिकार नहीं जता सकता है। सन 1865 में भारत में पहला ‘‘वन अधिनियम’’ बना। उसके बाद तो मानो वन कानूनों की बारिश सी हो गयी। जहां भी उन्हें कानून में छेद दिखाई देता, नये कानून लाते। वन अधिनियम 1927 द्वारा सभी तरह के वनोपज पर लगान लगा दिया गया।
जब देश आजाद हुआ तो स्थिति और बद से बदत्तर हो गयी। 1952 में ही राष्ट्रीय वन नीति लायी गयी, जिसमें आदिवासियों को जंगल उजाड़ने हेतु दोषी ठहराया गया। 1972 में वन्यजीवन के सुरक्षा के नाम पर कानून बनायी गयी और लाखों लोगों को जंगल से हटा दिया गया। वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृलांत आयोग ने तो यहां तक कहा कि आदिवासी ही जंगलों को बर्बाद करते हैं, इसलिए अगर जंगल बचाना है तो आदिवासियों को जंगलों से बाहर निकालना जरूरी है। सन 1980 में तो हद यह रहा कि सरकार ‘वन संरक्षण अधिनियम’ लागू किया, जिसमें जंगल का एक पत्ता तोड़ने को भी अपराध की श्रेणी में रखा गया। इस तरह से जंगल को आदिवासियों से छीन लिया गया। सन 2002 में भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम एवं सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को हाथियार बनाते हुए जंगलों में रह रहे एक करोड़ आदिवासियों को समय सीमा के अंदर जंगलों को खाली करने का आदेश दे दिया। आदेश में कहा गया कि आदिवासी लोग वन एवं वन्यजीवन के सुरक्षा में खतरा बन गये हैं। इस प्रक्रिया में देश भर से 25000 आदिवासी परिवारों के घर तोड़ दिये गये, खेतों में लहलहाते अनाज बर्बाद कर दिये गये। असम और महाराष्ट्र में तो स्थिति यह थी कि बुलडोजर और हाथियों को इस कार्यों में लगाया गया। जबकि जंगलों को बर्बाद करने वाले ठेकेदारों, पूंजिपतियों, नौकरशाहों और सत्ता के दलालों पर एक उंगली तक नहीं उठायी गयी। इतना ही नहीं, एक लाख आदिवासियों पर फर्जी मुकदमा कर जेलों में बंद कर दिया गया था। प्राकृतिक संसाधनों से बेदखलीकरण, वन विभाग द्वारा जुल्म व अत्याचार एवं राज्य प्रयोजित हिंसा ही आदिवासियों के खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय है। इसलिए झारखंड सरकार को त्वरित कदम उठाते हुए यहां के आदिवासी को न्याय देने हेतु वन अधिकार कानून के तहत जल्द से जल्द अधिकार देना चाहिए, जिसे सरकार के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ेगा क्योंकि सरकार ने आजतक वन एवं वन्यजीवन को बचाने के नाम पर आदिवासियों के साथ अन्याय ही किया है।