Gopika geetam 15th sloka with Sanskrit commentary

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K.N.RAMESH

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Jan 25, 2018, 7:46:05 PM1/25/18
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गोपीगीतम् -15
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अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् । 
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥

         – श्रीमद्भागवतम्  10/31/15

श्रीधर-स्वामि-टीका 
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किंच क्षणमपि त्वददर्शने दुःखं दर्शने च सुखं दृष्ट्वा सर्वसङ्गपरित्यागेन यतय इव वयं त्वामुपागतास्त्वं तु कथमस्मांस्त्यक्तुमुत्सहसे इति सकरुणमूचुः –अटतीति द्वयेन यद्यदा भवान् काननं वृन्दावनं प्रत्यटति गच्छति तदा त्वामपश्यतां प्राणिनां 
त्रुटिः क्षणार्धमपि युगवद्भवति । एवमदर्शने दुःखमुक्तम् । पुनश्च कथंचिद्दिनान्ते ते तव 
श्रीमन्मुखमुदुच्चैरीक्षमाणानां तेषां दृशां पक्ष्मकृद् ब्रह्मा जडो मन्द एव । निमेषमात्रमप्यन्तरमसह्यमिति दर्शने सुखमुक्तम्।

हिन्दी अनुवाद
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"हे प्यारे (श्यामसुन्दर) ! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन पलकों को बनानेवाला विधाता मूर्ख है। "

भावार्थ
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गोपियाँ  कहती हैं कि  जब आप प्रातः काल वन को जाते हैं तो आपके दर्शन के बिना हमको आधा क्षण भी एक युग के समान प्रतीत होता है, अर्थात् उतने समय तक बड़ा दुख प्रतीत होता है (जब संध्या समय आप लौटकर आते हैं) तो घुँघराले केशों से शोभायमान आपके सुंदर मुख के निरंतर दर्शन करती हुई हम लोगों की आँखों के पलक बनानेवाले ब्रह्मा जी सचमुच हृदयशून्य मालूम पड़ते हैं, उन्होंने पलक बनाकर अपनी जड़ता ही दिखलायी।जितने समय तक पलकें गिरती हैं उतने समय तक हम आपके दर्शन-सुख से वंचित रहती हैं।

अर्थात्, हे प्रिय! दिन के समय जब आप वन में विहरण करते रहते हैं तो आपके अदर्शन से हमें एक-एक क्षण भी युगवत् प्रतीत होने लगता है; सन्ध्या समय जब आप लौटते हैं और हम आपकी घुँघराली लटों से युक्त मुखचन्द्र को निहारने लगती हैं तो हमारी आँखों की पलकें ही हमारे लिये शत्रुवत् हो जाती हैं क्योंकि इनका बार-बार गिरना आपके मुखचन्द्र के दर्शन में विघ्नकारक होता है। ऐसे समय हमको प्रतीत होता है कि इन नेत्रों को बनाने वाले विधाता जड़मूर्ख हैं।

‘अटति यद् भवानह्रि काननं’ आप दिनभर वृन्दावन में पर्यटन करते हैं; आपका यह पर्यटन सर्वथा प्रयोजनरहित है। इस वृन्दावन में तो कोई दर्शनीय वस्तु भी नहीं है; गोकुल में, नन्द-ग्राम में, बरसाने में रासेस्वरी, नित्यनिकुज्जेश्वरी, वृषभानुनन्दिनी श्री राधारानी के मंगलमय मुखचन्द्र का दर्शन हो सकता है; इस दर्शन से आपके नेत्र सफल हो सकते हैं। तब भी, आप तो वन में ही पर्यटन करते रहते हैं और आपके अदर्शन से हम लोगों को त्रृटिवत् काल भी युगवत् प्रतीत होता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती के मतानुसार शत कमल-पत्र को एक पर एक रखकर तीव्र धारयुक्त तलवार से वेगयुक्त छेदन के प्रयास में तलवार की गति के पौर्वापर्य-कालसमूह से भी जो सूक्ष्म काल है वही क्षण कहलाता है। एक क्षण का सत्ताईस सौवाँ भाग ‘त्रुटि’ कहा जाता है। सूक्ष्मता के कारण त्रुटि-काल अनुभूत भी नहीं हो सकता। ‘त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः समृतः’ (श्रीमद्भा0 3/11/6)। ‘त्रुटि’ वह काल है जितने समय में सूर्य तीन त्रसरेणुओं का उल्लंघन करता है।

अर्थात्  क्षणभर भी आपके न दीखने से दुःख और दीखने से सुख का अनुभव करके हम सब कुछ छोड़कर यतियों के समान आपके पास आयी हैं, आप इस तरह हमें क्यों छोड़ते हैं?

 *🙏🏻🌹श्री राधे*🙏🌹
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