DASAHARA BEST WISHES MAY LORD RAM ADAPT YOU
TO KILL THE TEN HEADED
RAVANA OF TODAY
TO REMOVE AND ELIMINATE
1 CRIME
2 TYRANY OF RULE
3 CRIMINALS
4 MISGOVERNANCE
5 INJUSTICE
6 DESCRIMINATION
7 UNEQUALITY
8 EXPLOITATION AND CONSPIRACY AGAINST WOMAN
9 DEVIDED GLOBE
10 LACK OF HUMANITY
PROF H,V.TIWARY
FORMER VICE CHANCELLOR |
From: मान्धाता <drman...@ymail.com> |
राजनीति के हाथ में सांप्रदायिकता की तलवार BY Dr. MANDHATA SINGH, KOLKATA प्रख्यात स्वाधीनता प्रेमी और आधायात्मिक विभूति महर्षि अरविंद ने भारत को आजादी मिलने के वक्त ही सांप्रदायिकता और अखंडता के उन खतरों से देश को आगाह किया था, जिसकी चुनौती आज भी भारत झेल रहा है। यह इत्तेफाक ही है कि आजादी मिलने से ७५ साल पहले १५ अगस्त को ही महर्षि अरविंद पैदा हुए थे। प्रथम स्वाधीनता दिवस के मौके पर एक संदेश में उन्होंने कहा था-- हिंदू-मुसलमानों के बीच प्राचीन सांप्रदायिक वर्गीकरण अब देश के स्थायी राजनीतिक विभाजन के रूप में सुदृढ़ होता प्रतीत हो रहा है।..........यदि यह स्थिति जारी रहती है तो भारत गंभीर रूप से विकलांग और कमजोर हो जाएगा। हमेशा जनता में फूट, एक और आक्रमण या विदेशियों के विजय की भी आशंका बनी रहेगी। महर्षि अरविंद के ये वक्तव्य आज भी प्रासंगिक हैं। आजादी मिलने के ६० साल बाद भी भारत इन्हीं आशंकाओं के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है।लेकिन सिर्फ हिंदू-मुस्लिम ही नहीं बल्कि जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषाई सांप्रदायिकता के स्थायी संकट में फंसा हुआ है। दुखद यह है कि सत्ता की राजनीति के यही सांप्रदायिक तत्व प्रमुख हथियार बने हुए हैं। राजनीति के हाथ में सांप्रदायिकता की यह तलवार देश की एकता और अस्मिता को विध्वंश करने पर तुली है। इसके साए में अब हर किसी की पहचान ही सांप्रदायिक हो गई है। सोचिए जब आपसे आपका परिचय पूछा जाता है, और जैसे ही आप नाम बताते हैं तो न चाहते हुए भी आप हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, दलित, सवर्ण,या फिर किसी भाषाई वर्ग मसलन बंगाली, मराठी, आदिवासी, हिंदुस्तानी, ( हिंदी भाषी लोगों के लिए यह शब्द जानबूझकर यहां प्रयोग किया है क्यों कि देश के कई हिस्से में हिंदी बोलने वाले हिकारत से इसी नाम से संबोधित किए जाते हैं।), मद्रासी , दक्षिण भारतीय, उत्तरभारतीय के साथ-साथ अपने-अपने हिसाब से न जाने क्या-क्या समझ लिए जाते हैं। इतना ही नहीं कोई सरकारी- गैरसरकारी फार्म भरना होगा तो बाकायदा जाति, धर्म के भी कालम भरने होते होते हैं। यानी आपका परिचय आपका जाति, धर्म, क्षेत्र व संप्रदाय ही है। अल्पसंख्यक ( सामान्यतया यह शब्द मुसलमानों की पहचान से संबद्ध हो गया है जबकि किसी बहुसंख्यक समुदाय के साथ रहने वाले कम तादाद के उस समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए जो गैर मुस्लिम हो। मगर वोट की राजनीति ने इस शब्द को भी गिरवी रख दिया है।), पिछड़े, अनुसूचित जाति व जनजाति को कमजोर मानकर संविधान में आरक्षण के प्रावधानों ने और बुरी तरह से लोगों को संप्रदायों में बांटा है। और इसकी बात करने वाला हर कोई सांप्रदायिक है। किसी न किसी खेमे में बैठे लोगों को यह बात नागवार लगेगी मगर मुझे तो ये सारे लोग सांप्रदायिक ही लगते हैं। खासतौर से ऐसे प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े दलों, कार्यकर्ताओं को मैं ज्यादा सांप्रदायिक समझता हूं जो सिर्फ वोट की खातिर अपने तरीके से सांप्रदायिकता की परिभाषा गढ़ लेते हैं। बहुत संभव है कि मेरी इस कटु समीक्षा के कारण छद्म प्रगतिशील मुझे भाजपाई, संघी या फिर भगवाधारी घोषित करदें। मुझे जानना है तो पूरा लेख पढ़ें। अगर तार्किक न लगे तो मेरी दलील को गलत साबित करें। सांप्रदायिकता के संदर्भ में सामान्य अवधारणा है कि किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरों पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है। सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्य उत्पन्न करती है और एकता को नष्ट करती है। सांप्रदायिकता के कारण समाज को दंगे और विभाजन जैसे कुपरिणामों को भुगतना पड़ता है। साम्राज्यवादी ताकतें गरीब देशों पर या एक देश दूसरे देश पर अधिकार करने या उसको कमज़ोर करने की नीयत से सांप्रदायिकता फैलाते हैं। सांप्रदायिकता सामजिक सद्भावना के लिए घातक है। अर्थात वह सबकुछ सांप्रदायिकता की श्रेणी में आता है जिससे समाज, धर्म, संस्कृति व एकता नष्ट होती है। इस अवधारणा को मानकर मैं तो डंके की चोट पर कहता हूं कि, चाहे संघी हों या प्रगतिशील व वामपंथी, सांप्रदायिकता के हमाम में सभी नंगे हैं। धर्म, जाति, क्षेत्रवाद की साप्रदायिक फसल काटकर ही कई उन राजनीतिक दलों का वजूद कायम है जिनसे बेहतर सरकार और उन्नत भारत की हम उम्मीद पाले बैठे हैं। जरा किनारे बैठकर देखिए ऐसे राजनीतिज्ञ, लेखक या खुद को सामाजिक कार्यकर्ता कहलाने वाले सफेदपोश लोग क्या सांप्रदायिक नहीं हैं ? बेशक हैं और बेशर्म भी हैं। बेशर्म इस लिए क्यों कि ये ही एक दूसरे को सांप्रदायिक भी करार भी देते हैं। इस विभेद को समाज और राजनीति में कब और कैसे जगह मिली ? कौन लेगा जिम्मेदारी अपने ऊपर ? सभी पल्ला झाड़ लेंगे और अपना दामन पाक-साफ बताएंगे मगर इतिहास की इन भूलों या मजबूरियों का खामियाजा तो अब देश भुगत रहा है। सत्ता का खेल खेलने वाले ही इस दुर्दशा के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार माने जेने चाहिए। पूरे भारत की राजनीतिक तस्वीर को ऐसा बिगाड़ा है जिसमें समाज भी विकृत हो गया है और विशुद्ध भारतीयता की पहचान ही खो गई है। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आजादी के साथ विरासत में मिली सांप्रदायिकता ६० साल बाद कितने रूप बदल चुकी है। आजादी के बाद भारतीय राजनीति, बुद्धिजीवी और समाज कई खंडों में खंडित हो चुके हैं। भारत के इतिहास में आजादी के बाद से ही देखें तो यह खेमेबाजी बड़ी तेजी से बढ़ी और जिसके प्रतिरूप भी बदले हैं। एकजुट होकर आजाद होने के लिए लड़ रहे देश के लोगों को हिंदू और मुसलमानों में बांटकर भारत और पाकिस्तान बनना ही वह काला दिन था जिसने धर्म के आधार पर भारत के भीतर भी सांप्रदायिकता की वह आग लगा दी जिसमें आज भी भारत झुलस रहा है। हम मानते हैं कि भारत विभाजन, नोआखली के दंगे, पाकिस्तान और भारत से लोगों का पलायन, भाग रहे लोगों की हत्याएं जैसी वारदातों से बेदखल हुए लोगो की पीढ़ी ही भारतीय राजनीति में काबिज हुई। इसी पीढ़ी के लोगों ने वह नींव डाली है जिस पर आज का भारत खड़ा है। तो फिर ऐसे चेहरे भी पहचाने जाने चाहिए जिन्होंने भाषा, धर्म, जाति, व क्षेत्रवाद का जहर बोया। क्या गलती गांधी, नेहरू, अंबेडकर, सरदार पटेल जैसे नेताओं ने की या इनकी विरासत संभालने वाले राजनेताओं ने सत्ता की खातिर देश को भाड़ में झोंक दिया ? यह ऐसा सवाल है जिसमें इनके बाद भारत की दुर्दशा का जवाब छिपा है। हिंदुओं के नाम पर शुरू से राजनीति कर रही पार्टी भारतीय जनसंघ ( अब भाजपा ) ने सीधे सीधे हिंदुत्व की वकालत की। सहयोग मिला दूसरे हिंदू संगठनों मसलनहिंदू जागरण, आरएसएस, विहिप वगैरह से। इसका चरम देश में हुए छोटो-बड़े हिंदू-मुस्लिम दंगे से गुजरकर गुजरात के दंगो तक पहुंचा। फिर भी सच यह है कि हिंदू-मुसलमानों में विभाजित भारत को यह धर्म आधारित राजनीति लंबे समय तक रास नहीं आई। लंबे समय तक इसी देश की बहुसंख्यक हिंदू जनता ने सांप्रदायिक राजनीति करने वालों को सत्ता से कोसों दूर रखा। इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ नारा हर सांप्रदायिक नारे पर भारी पड़ा। बाद में गलतियां भी यहीं से शुरू हुईं। जाति आधारित आरक्षण, देशभर में त्रिभाषा फार्मूले पर शिक्षा के मुद्दे पर दक्षिण भारत समेत सारे अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी के विरोध की सांप्रदायिक राजनीति इसी समय मुखर हुई। यह जाति और भाषाई राजनीति हिंदू- मुस्लिम सांप्रदायिकता पर भारी पड़ी और देश सत्ता के नए साप्रदायिक समीकरण में उलझ गया। कांग्रेस का अखिल भारतीय स्तर पर कमजोर होना भी क्षेत्रीय राजनीति के मुखर होने के साथ ही शुरू हुआ। असम, नगालैंड, मणिपुर, पंजाब, पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत भाषाई और क्षेत्रीय राजनीति के उदाहरण बने। ताजा हालात में महाराष्ट्र में शिवसेना के सभी घटक क्षेत्रीय राजनीति के घृणित स्तर पर उतर आई है। जगह-जगह हिंदी भाषियों को मारा और अब किसी उग्रवादी संगठन की तरह मराठी की अनिवार्यता का फतवा जारी कर दिया है। पश्चिम बंगाल में ऐसे फतवे सत्ता में शामिल किसी संगठन ने तो नहीं जारी किए मगर हिंदी के विरोध की राजनीति जगजाहिर है। इसका सामान्य उदाहरण तो यही है कि हिंदी माध्यम में पढ रहे पश्चिम बंगाल बोर्ड के छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र तमाम निवेदनों, आंदोलनों व दलीलों के बावजबूद नहीं दिए जाते हैं। यानी हिंदी माध्यम काछात्र अंग्रेजी में प्रश्न पढ़कर उसका हिंदी में उत्तर लिखता है। यह उदाहरण सिर्फ भाषा विरोध की उस राजनीति की ओर इशारा करने के लिए यहां रखा है जो प्रकारांतर से भाषाई राजनीति की सांप्रदायिकता है। और ऐसा पश्चिम बंगाल की वह कम्युनिष्ट सरकार करती है जो दूसरे दलों पर पक्षपाती और सांप्रदायिक होने का आरोप लगाती रहती है। इसी क्षेत्रीयता और भाषाई सांप्रदायिकता की बुनियाद पर पिछले २५ सालों से यह सरकार कायम है। सच यह है कि बंगाल समेत तमाम राज्यों के क्षेत्रीय दलों के हाथ में जाति, भाषा, क्षेत्रीयता की सांप्रदायिक तलवार है। यानी भाजपा जहां हिंदूवादी होकर हिंदुओं के वोट बटोरने की सांप्रदायिक राजनीति कर रही है तो खुद को प्रगतिशाल कहने वाले कांग्रेस, कम्युनिष्ट, समाजवादी या अन्य तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छद्म धर्मनिरपेक्षता के साथ भाषा, जाति व क्षेत्रवाद की ऐसी घिनौनी राजनीति कर रहें हैं जिसमें देश एक रहकर भी कई टुकड़ों का दंश झेल रहा है। इंदिरागांधी के बाद का भारत कट्टर हिंदुत्व का नारा बुलंद करने वाली भाजपा और कुछ मुस्लिम संगठन अपने सांप्रदायिक नारे से लोगों को लुभाने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरागांधी के कार्यकाल में भी लगे रहे। बाबरी मसजिद या फिर काशी मथुरा के मंदिरों की मुक्ति के एक तरफ वायदे भाजपा कर रही थी तो दूसरी तरफ मुस्लिम संगठन अपने समुदाय को इनका भय दिखाकर एकजुट करते रहे। इंदिरा गांधी के १९८४ में पतन और सहानुभूति की लहर में कांग्रेस को मिली अद्भत जीत ने फिर इन सांप्रदायिक शक्तियों को हासिए पर धकेल दिया। पहले राजीव गांधी फिर उनकी हत्या के बाद पीवीनरसिंहाराव के कार्यकाल में न सिर्फ कांग्रेस कमजोर हुई बल्कि पूरे देश में क्षेत्रीय, भाषाई, व कट्रवादी ताकतों का बोलबाला हो गया। यहां कांग्रेस के कार्यकाल को पृष्ठभूमि बनाकर इसलिए बात की जा रही है क्यों कि इसी दौर में चुनाव की राजनीति गरीबी और विकास के मुद्दे से हटकर भाषाई और कट्टर हो गई। नतीजे में जातिवादी, क्षेत्रवादी जैसी राजनीतिक ताकतें पंजाब और असम में नरसंहार करने लगीं। इंदिरागांधी व राजीवगांधी की हत्या के कारण बनें। यह सब सांप्रदायिकता का ही प्रतिरूप है। और आज भाषाई और क्षेत्रीय राजनीति करने वालों के संगठन क्षेत्रीय दलों की मान्यता हासिल किए हुए हैं। मेरे कहने का मतब सिर्फ यह है कि हिंदू और मुसलमान का लड़ना ही सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि भाषा, जाति और क्षेत्र के नाम पर चल रही पूरी भारतीय राजनीति ही सांप्रदायिक है। यहां मैं सांप्रदायिता का पूरा इतिहास नहीं लिखने जा रहा हूं मगर राजनीतिक दलों और उनके कर्णधारों की उस दोहरी राजनीति को जरूर उजागर करूंगा जिनसे हमारा देश और समाज बर्बादी के कगार पर ला खड़ा कर दिया गया है। क्षेत्रीय राजनीति बनाम सांप्रदायिकता किसी एक सशक्त दल के तौर पर पूरे देश में कायम कांग्रेस अस्सी के दशक में ही बिखरने लगी। इंदिरागांधी के कार्यकाल में ही कांग्रेस को चुनौती दी जनता दल ने । इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस का पतन हो गया। हालांकि फिर कांग्रेस की वापसी हुई मगर तब तक पंजाब, असम में क्षेत्रीय ताकतें सिर उठा चुकी थीं। दक्षिण में एनटीरामाराव का तेलुगूदेशम, उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी, पूर्वोत्तर में नगा व मणिपुरी ताकतें के अलावा देशभर में तमाम भाषाई व धार्मिक आधार पर छोटे- बड़े संगठन खड़े हो गए। इन सबको इसलिए गिना रहा हूं ताकि बता सकूं कि यही दल आज भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बने हुए हैं और सरकारें भी इन्हीं की हैं। सरकारें यानी आमजनता की रहनुमा जिनपर देश और राज्य के विकास का सारा दारोमदार होता है। जबकि इन दलों की पृष्ठभूमि ही सांप्रदायिक है। वह कैसे आप भी जानते हैं। इन क्षेत्रीय दलों से आप कैसे भारत के निर्माण की उम्मीद कर सकते हैं। वैसे आज कोई राजपूत नेता है तो कोई ब्राह्मण नेता । यादव, मुसलमान या फिर हरिजन, राजभर, कुर्मी समेत तमाम जातियों के अलग-अलग नेता भारतीय राजनीति की तकदीर लिख रहे हैं। जाहिर है इन्हें पहले अपने वोट बैंक की चिंता होगी इसके बाद बाद ही शायद देश याद आए। इन्हें आप सांप्रदायिक कहेंगे तो गलत भी माना जाएगा क्यों ये सामुदासिक विकास की भावना से जुड़े हैं। अगर यह सब सामुदायिक है तो फिर सांप्रदायिक कौन है ? सभी तो अपने समुदाय का काम कर रहे हैं। मगर यह सच नहीं है। सच यह है कि सभी ने राजनीतिक फायदे के लिए अपने हाथ में सांप्रदायिकता की तलवार थाम रखी है और भारत माता के जिस्म को तार-तार कर रहे हैं। अब वक्त आ गया है जब इस किस्म की राजनीति पर रोक लगनी चाहिए अन्यथा यह तलवार समाज के साथ देश के भी टुकड़े कर देगी। कश्मीर में हाल में अमरनाथ की जमान के बहाने जो हुआ उससे बड़ा दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है। हम समझते हैं कि भारत की चुनाव प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाए जाने की जरूरत है। बहुदलीय प्रणाली भी खत्म की जानी चाहिए और सिर्फ पक्ष और विपक्ष के लिए चुनाव का प्रावधान हो तो बेहतर होगा। वैसे इस मुद्दे पर बहस चलाकर ही कोई कदम उठाया जाना चाहिए। वह व्यवस्था जिसमें सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान नहो। देश के चुनाव नेता की योग्यता और विकास के मुद्दे पर लड़े जाने चाहिए। इससे अलग किसी भी प्रावधान को चुनाव में जगह नहीं होनी चाहिए। इस किस्म के माडल पूरी दुनिया में उपलब्ध हैं। ये मेरे सुझाव हैं। आप भी मुहिम छेड़िए ताकि सांप्रदायिकता की यह तलवार फिर सामाजिक समरसता की म्यान में दफ्न हो जाए। हम ब्लागर अगर यह मुहिम छेड़ने की जिम्मेदारी उठा सकें तो यह भी ब्लाग के जरिए देश सेवा की बड़ी मिसाल होगी। --~--~---------~--~----~------------~-------~--~----~ Read http://www.HindiBlogs.com - हिन्दी चिट्ठों की जीवन धारा You received this message because you are subscribed to the Google Groups "Hindi Bhasha" group. 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