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कुशल

unread,
Aug 25, 2010, 10:26:47 AM8/25/10
to हिंदी (Hindi)
नमस्ते,

क्या कोई कृपया करके 'ऋ' और 'री/ रि' के उच्चारण में मुझे अंतर समझा सकता
हैं? आश्चर्य कि बात है कि 'र' के ही इतने विविध रूप हैं देवनागरी में!

धन्यवाद,
कुशल

Yogendra Joshi

unread,
Aug 28, 2010, 7:38:10 AM8/28/10
to hi...@googlegroups.com
२५ अगस्त २०१० ७:५६ अपराह्न को, कुशल <kbku...@gmail.com> ने लिखा:

श्री कुशलजी,
आपके प्रश्न का उत्तर देना मुझे आसान नहीं लगता है । किसी भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों की बारीकियों को लिखित शाब्दिक विवेचना से समझा पाना शायद आसान नहीं है । उन्हें मुंह से बोलकर ही समझाना सर्वाधिक प्रभावी होगा ऐसा मेरा मत है । फिर भी मैं स्पष्ट करने का प्रयास करता हूं । आरंभ में ही बता दूं कि मैं भाषाविद् नहीं हूं, लेकिन अभिरुचि होने के कारण अपनी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का लाभ लेकर में ध्वनियों को समझने की कोशिश करता हूं ।

वस्तुतः तीन ध्वनियां ऋ (ह्रस्व तथा दीर्घ), ज्ञ (संयुक्ताक्षर, ज्+ञ) एवं विसर्ग (ः), जो हिंदी में प्रयुक्त संस्कृत मूल के तत्सम शब्दों में आज भी विद्यमान् हैं, का सही उच्चारण कम ही लोगों को पता होगा, कदाचित् हर संस्कृत-अध्येता को नहीं । ‘ऋ’ और ‘रि अथवा री’ का उच्चारण एक नहीं होता है और न ही एक हो सकता है । संस्कृत व्याकरण में ऋ स्वर है और रि/री इ/ई (ह्रस्व/दीर्घ स्वर) की मात्रा के साथ उच्चारित र (व्यंजन) की ध्वनि है । (अन्य ध्वनियों के साथ भी समस्या हो सकती है ।) पहले यह बता दूं कि संस्कृत वर्णमाला के स्वर ‘ऋ’ और व्यंजन टवर्ग (‘ट’,‘ ठ’,‘ ड’, ‘ढ’, ‘ण’), ‘र’, एवं ‘ष’ मूर्धन्य कहलाते हैं ।  अर्थात् इनका मूल स्थान मूर्धा है । मूर्धा से तात्पर्य है मुख के भीतर के ऊपरी सतह का आगे की ओर का कड़ा गड्ढेदार स्थल । इन सभी ध्वनियों के उच्चारण के प्रयत्न (articulation) में जीभ का अगला हिस्सा सिमटकर इस स्थल पर आ जाता है । (ध्यान रहे कि ‘ट’ आदि से हमारा तात्पर्य वस्तुतः ‘ट्’ आदि से रहता है ।)

टवर्ग के लिए जीभ अगला भाग मूर्धा से सटकर हवा के रास्ते को रोक देती है । जब त्वरित गति से जीभ वहां से हटती है तो एक ‘स्फोट’ के साथ ये ध्वनियां उत्पन्न होती हैं । इनको स्पर्श (अंग्रेजी में plosives) कहा जाता है । ट, ठ आदि का परस्पर भेद अन्य कारणों से भी रहता है । ट, ठ के मामले में कंठ में स्थित स्वरतंतु (vocal chords of the larynx) कंपन नहीं करते हैं (अघोष, voiceless) जब कि (घोष, voiced) ट, ड, ण के लिए वे कंपित होते हैं । ठ, ढ के उच्चारण में क्षणिक फूंक (air puff) भी मुख से छूटती है (महाप्राण, aspirated) जो ट, ड, ण में नहीं होता (अल्पप्राण, inaspirated) । इसके अतिरिक्त ण के मामले में नासागुहा (nasal cavity) भी ध्वनि पैदा करने में भाग लेती है (नासिक्य, nasal sound) । ‘क’ से ‘म’ तक के सभी व्यंजन स्पर्श हैं ।

जब जीभ का काफी हिस्सा मूर्धा और उसके पीछे (गले की ओर का) हल्का-सा छूती है ताकि दोनों के बीच केवल इतनी रिक्तता हो कि हवा सरसराहट की घ्वनि के साथ बाहर निकल सके, तब ‘ष’ की ध्वनि पैदा होती है । जैसे ही जीभ वहां से हटती है और मुखाकृति किसी स्वर के योग्य अनुरूप हो जाती है, हमें ष की ध्वनि स्वर-मिश्रित प्राप्त होती है । स्पष्टतः यह स्पर्श व्यंजनों से भिन्न है । इसे तथा इसी के समान ‘श’ ‘स’ ऊष्माण (fricatives) कहे जाते हैं । इस ध्वनि के मामले में स्वरतंतु कंपन नहीं करते । इस पर भी ध्यान दें कि इस ध्वनि को किसी स्वर की भांति सतत या लगातार (ष् ष् ष् ... जैसा) उत्पन्न किया जा सकता है, लेकिन उसका प्रयोग संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं होता । स्वरतंतु के कंपन को ‘अ’ के सतत उच्चारण में गले पर अंगुलियां रखकर अनुभव किया जा सकता है, जब कि यह कंपन ष् ष् ष् ... की सतत ध्वनि में नहीं होता ।

‘र्’ का उच्चारण स्थान भी यहीं है, किंतु इसके मामले में जीभ का अगला सिरा मूर्धा के निकट लगभग छूने की स्थिति में होता है किंतु पीछे का अधिकांश हिस्सा एवं मुख के ऊपरी सतह के बीच पर्याप्त खालीपन रहता है । स्वरतंतु प्रकंपित रहते हैं और जीभ जैसे ही स्वर-योग्य मुद्रा लेती है, हमें र की ध्वनि मिलती है । अब ऋ पर ध्यान दें ऋ का प्रयत्न र के समान ही है । यदि कुछ काल तक जीभ अपने स्थान पर टिकी रहे तो एक समान सतत ध्वनि निकलती है । यही ऋ है । इसे आप र् र् र् ... कह सकते हैं । जब जीभ हटकर किसी स्वर के अनुरूप नई स्थिति में आती है तो यही ध्वनि उस स्वर से मिश्रित र की ध्वनि बन जाती है । यदि जीभ किसी व्यंजन के लिए प्रस्तुत हो जाए तो ऋ के बाद उस व्यंजन की ध्वनि मिलेगी । इस प्रकार ऋतु का उच्चारण र् र् र् ... +त्+उ होगा न कि र्+इ+त्+उ । र (एवं य, ल, व) को अंतस्थ (semivowels) कहा जाता है । वास्तव में य, र, ल, व का स्वरों इ, ऋ, ऌ, उ से क्रमशः अनन्य संबंध है ।

मेरे ये विचार मुख्यतः वरदाचार्यप्रणीत लघुसिद्धांतकौमुदी (पण्डितद्वय नारायण दत्त त्रिपाठी एवं रामनारायण शास्त्री पाण्डेय की टिप्पणियों से युक्त) तथा अन्य स्रोतों और अपने वैज्ञानिक विमर्श पर आधारित है ।
- योगेन्द्र जोशी 

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कुशल

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Aug 29, 2010, 12:13:24 PM8/29/10
to हिंदी (Hindi)
माननीय योगेन्द्र जी,

आपका बहुत बहुत धन्यवाद. आप के लेख से मुझे बहुत कुछ सीखने मिला. अब
पाठशाला के दिन याद करता हूँ तो आश्चर्य होता है कि हमारे शिक्षकों ने
हमें कितना नहीं सिखाया.

तो क्या हम यह कह सकतें हैं कि 'ऋ' का उच्चारण इटालियन/ स्पेनिश 'r' जैसा
होता है?

On 28 अग, 12:38, Yogendra Joshi <yogendrapjo...@gmail.com> wrote:
> २५ अगस्त २०१० ७:५६ अपराह्न को, कुशल <kbkus...@gmail.com> ने लिखा:

> > इस समूह से सदस्यता समाप्त करने के लिए, hindi+un...@googlegroups.com<hindi%2Bunsu...@googlegroups.com>को ईमेल करें.
> > और विकल्पों के लिए,http://groups.google.com/group/hindi?hl=hiपर इस समूह
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Yogendra Joshi

unread,
Aug 29, 2010, 1:04:13 PM8/29/10
to hi...@googlegroups.com
श्री कुशल जी, संयोग से मुझे इटालियन/ स्पेनिश 'r' के उच्चारण का ज्ञान नहीं है । मैं इस बात पर जोर डालता हूं कि ॠ एक स्वर ध्वनि है और परिभाषा से स्वर स्वतन्त्र रूप से तथा किसी भी कालावधि के लिए (जितनी देर सांस अनुमति दे)
उच्चारित हो सकता है । तदनुसार स्वरों को ह्रस्व, दिर्घ एवं प्लुत (अपेक्षया देर तक जैसा संगीत में होता है) वर्गों में बांटा जाता है । संस्कृत व्याकरण में अ, इ, आदि का मतलब हस्व या दीर्घ, यथोचित, होता है ।

- योगेन्द्र जोशी 

२९ अगस्त २०१० ९:४३ अपराह्न को, कुशल <kbku...@gmail.com> ने लिखा:
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कुशल

unread,
Aug 29, 2010, 4:34:38 PM8/29/10
to हिंदी (Hindi)
योगेन्द्र जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद. अब मुझे लगता है कि मैं समझ रहा
हूँ. क्या आप कृपया करके इस चलचित्र को देखने का कष्ट करेंगें...

http://www.youtube.com/watch?v=1hSO7pKyHFI&feature=रेलातेद

मेरे समझ के अनुसार इनका उच्चारण गलत है. आपका क्या कहना है इस बारे
में?

यह है एक लिंक स्पेनिश r की... क्या यह है 'ऋ'?

http://www.youtube.com/watch?v=eLsUXDkVKYA

आपको इतना परेशान करने की लिए माफ़ी चाहता हूँ!

धन्यवाद

On 29 अग, 18:04, Yogendra Joshi <yogendrapjo...@gmail.com> wrote:
> *श्री कुशल जी, संयोग से मुझे इटालियन/ स्पेनिश 'r' के उच्चारण का ज्ञान नहीं


> है । मैं इस बात पर जोर डालता हूं कि ॠ एक स्वर ध्वनि है और परिभाषा से स्वर
> स्वतन्त्र रूप से तथा किसी भी कालावधि के लिए (जितनी देर सांस अनुमति दे)
> उच्चारित हो सकता है । तदनुसार स्वरों को ह्रस्व, दिर्घ एवं प्लुत (अपेक्षया
> देर तक जैसा संगीत में होता है) वर्गों में बांटा जाता है । संस्कृत व्याकरण
> में अ, इ, आदि का मतलब हस्व या दीर्घ, यथोचित, होता है ।
> - योगेन्द्र जोशी
>

> *
> २९ अगस्त २०१० ९:४३ अपराह्न को, कुशल <kbkus...@gmail.com> ने लिखा:

> ...
>
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Sandeep Dixit

unread,
Jul 13, 2014, 9:28:50 AM7/13/14
to hi...@googlegroups.com

योगेन्द्र जी ,
आपकी टिप्पणी पसंद आई |
इसके बाद  मैं लघुसिद्धांतकौमुदी पढ़ने का इच्छुक हूँ | आप किसी ऑनलाइन प्रति की और इंगित कर सकें तो मैं धन्य हो जाऊंगा ||

आपका संदीप

Yogendra Joshi

unread,
Jul 13, 2014, 1:37:14 PM7/13/14
to hi...@googlegroups.com
संदीप जी, आपके ई-पत्र के लिए धन्यवाद। खेद है कि लघुसिद्धांतकौमुदी के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है। मेरे पास गीताप्रेस गोरखपुर की एक पुरानी प्रति है। मेरा अनुमान है कि उसकी मुद्रित प्रति आपको गीताप्रेस से मिल सकती है। उनकी पुस्तकें सस्ती होती हैं। आप उनसे संपर्क कर सकते हैं। शुभेच्छा।


13 जुलाई 2014 को 6:58 pm को, Sandeep Dixit <dixits...@gmail.com> ने लिखा:

--
आपको यह संदश इसलिए मिला है क्योंकि आपने Google समूह के "हिंदी (Hindi)" समूह की सदस्यता ली है.
इस समूह की सदस्यता समाप्त करने और इससे ईमेल प्राप्त करना बंद करने के लिए, hindi+un...@googlegroups.com को ईमेल भेजें.

इस समूह में पोस्ट करने के लिए, hi...@googlegroups.com को ईमेल भेजें.
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