इस विदेशी भाषा के माध्यम
ने बच्चों के दिमाग को शिथिल
कर दिया है . उनके स्नायुओं
पर अनावश्यक जोर डाला है ,
उन्हें रट्टू और नकलची बना
दिया है तथा मौलिक कार्यों
और विचारों के लिए सर्वथा
अयोग्य बना दिया है . इसकी
वजह से वे अपनी शिक्षा का
सार अपने परिवार के लोगों
तथा आम जनता तक पहुंचाने में
असमर्थ हो गये हैं . विदेशी
माध्यम ने हमारे बालकों को
अपने ही घर में पूरा विदेशी
बना दिया है . यह वर्तमान
शिक्षा -प्रणाली का सब से
करुण पहलू है . विदेशी
माध्यम ने हमारी देशी
भाषाओं की प्रगति और विकास
को रोक दिया है . अगर मेरे
हाथों में तानाशाही सत्ता
हो , तो मैं आज से ही विदेशी
माध्यम के जरिये हमारे लडके
और लडकियों की शिक्षा बंद कर
दूं और सारे शिक्षकों और
प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम
तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें
बर्ख़ास्त करा दूं . मैं
पाठ्य पुस्तकों की तैयारी
का इन्तजार नहीं करूंगा . वे
तो माध्यम के परिवर्तन के
पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह
एक ऐसी बुराई है , जिसका
तुरन्त इलाज होना चाहिये .
( हिन्दी नवजीवन , २ - ९- ‘२१ )
https://samatavadi.wordpress.com/
-----------------------------------
यदि वह जीवित होते तो
मैं उनसे पूछता अवश्य
कि महात्मन यह बताने
का कष्ट करें कि क्या
आपने भी आत्महत्या
की? क्या आप पर भी
अनावश्यक ज़ोर पड़ा और
क्या आपकी मौलिकता का
भी नाश हो गया? आपका
विकास रूक गया क्या?
और मैं ऐसा क्यों
पूछता? वह इसलिए कि
कदाचित् महात्मा
भूल गए कि उन्होंने
उसी अंग्रेज़ी माध्यम
से शिक्षा प्राप्त की
जिसका वह विरोध कर
रहे थे। वे उच्च
शिक्षा प्राप्ति के
लिए इंग्लैड गए,
दक्षिण अफ़्रीका में
उसी अंग्रेज़ प्रशासन
के अंतर्गत वकालत
करने गए। वो तो उनको
जब अंग्रेज़ों ने लात
मारी तब उनका अहं
जागा और उन्हें ज्ञान
की प्राप्ति हुई!!!
मैं कोई अंग्रेज़ी
माध्यम की वकालत नहीं
कर रहा लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि खामखां
किसी चीज़ को नीचा
दिखाया जाए। उनके समय
में हमारा लोकल
शिक्षा का ढाँचा इतना
पिछड़ा हुआ था कि बस
पूछो मत। समय के साथ
चलना है तथा औरों को
हराना है तो आपको
उनसे बढ़िया होना
होगा। देशभक्ति और ये
चीज़े अलग हैं। अपने
यहाँ से ही शिक्षा
ग्रहण करना देशभक्ति
का प्रमाण नहीं है।
cheers
Amit
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Pankaj Narula wrote:
> अफलातून भाई जी
>
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा
> लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
>
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय
> गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना
> था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष
> आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी
> माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय
> कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक
> पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व
> विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह
> चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर
> अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
>
पंकज, मेरा थोड़ा मतभेद है।
आपके स्वेज़ और पनामा के बारे
में न जानने का भाषा से कोई
लेना-देना नहीं। वह तो हमारी
शिक्षा-पद्धति की कमज़ोरी है
जो विचारों को समझने की बजाय
रट्टाबाज़ी पर केन्द्रित
है। आप अँगरेज़ी में पढ़ रहे
होते तो भी वही हाल होता।
भाषाविद इस बारे में एकमत
हैं कि ज्ञान अर्जन की भाषा
वही होनी चाहिये जो बच्चे की
अपनी भाषा हो। अपनी भाषा
यानि अपने परिवेश में
बोल-सुनकर या प्राकृतिक रूप
से सीखी हुई भाषा। ऐसी एक से
ज़्यादा भाषाएँ भी हो सकती
हैं। बल्कि भारत में एक से
ज़्यादा भाषाएँ बोलते बोलते
बड़े होना आम है। पर मुझे
नहीं लगता कि भारत में बहुत
सारे परिवेश ऐसे होंगे जहाँ
बच्चे अँगरेज़ी बोलते-सुनते
बड़े होते हों, शहरों को मिला
लें तो भी। अँगरेज़ी अभी भी
ज़्यादातर लिखने-पढ़ने का
साधन है। इसमें आम बोल-चाल
तो बमुश्किल ५-६% लोगों तक
सीमित होगी। हो सकता है मैं
ग़लत होऊँ, पर मेरा कहना यह है
कि अगर आप अँगरेज़ी बोल-चाल
वाले परिवेश में बड़े नहीं
हुए तो आपकी प्रारम्भिक
शिक्षा अँगरेज़ी में नहीं
होनी चाहिये। या घुमा कर
कहें तो, यदि आपके आस-पास,
मिसाल के तौर पर, हिंदी और
पंजाबी बोली जाती है तो आपकी
प्रारम्भिक शिक्षा की
निर्देश भाषा इन दोनों में
से कोई एक होनी चाहिए।
अँगरेज़ी का एक विषय होना अलग
बात है। उसकी ज़रूरत से मैं
इंकार नहीं करता।
ज्ञान के लिए भाषा एक माध्यम
ज़रूर है, पर इस माध्यम का सही
होना बहुत ज़रूरी है। गाँधी
जी ने जो बात कही (और मैं
अफ़लातून जी का शुक्रिया अदा
करता चलूँ उसे पोस्ट करने के
लिए), वह भले ही उन्होंने
अपने अनुभवों से कही हो,
उसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध
हो चुका है।
http://www.ieq.org/pdf/insidestory2.pdf#search=%22learning%20in%20mother%20tongue%22
http://www.iteachilearn.com/cummins/mother.htm
> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी
> भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं
> कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक
> बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब
> स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात
> करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से
> स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की
> असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत
> में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार
> भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल
> वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने
> बोलने को मिलती थी।
भाषाविद मानते हैं कि
शुरूआती वर्षों में बच्चे
एक से अधिक भाषाएँ तक आराम
से सीख सकते हैं। बाद में
यही बहुत मुश्किल और असहज
होता है, और वैसी रवानगी भी
नहीं आती। ऐसा सिर्फ़ दक्षिण
भारत में नहीं, भारत के लगभग
हर प्रांत में है। राजस्थान
के लोग मारवाड़ी और हिंदी बोल
लेते हैं और समझने को
पंजाबी, हरयाणवी और गुजराती
तक समझ लेते हैं। और आप
जानते ही होंगे कि पंजाब में
भी अधिकतर लोग भी
हिंदी-उर्दू आराम से
समझते-बोलते हैं। अमरीका तो
फिर भी अधिकांशतया एकभाषी
देश है। भारत में तो कहावत
के अनुसार हर ९ कोस में
बोलियाँ बदलती हैं। इसलिये
जहाँ अमेरिका जैसे देश में
बहुभाषी होना अपवाद है, वहीं
भारत में यह लगभग नियम है।
>
> अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के
> लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि
> अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों
> में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे
> जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ
> किया नहीं जा सकता।
>
> पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में
> व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव
> कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं
> क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं
> जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य
> कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।
>
बिल्कुल सहमत हूँ। काम में
आने वाली भाषाएँ सीखना न तो
नई बात है और न ही बुरी। पर
मेरे ख़याल में यह मुद्दा
इससे बिल्कुल अलग है कि आपकी
शिक्षा की निर्देश भाषा कौन
सी हो।
> On 9/15/06, अफ़लातून <afla...@gmail.com> wrote:
> >
> > अंग्रेजों से 'लात खाने' के
> > पहले के गांधी के अनुभव
> > -उन्ही के शब्दों में :
> > यहां मैं अपने कुछ अनुभव बता
> > दूं . १२ बरस की उम्र तक मैंने
> > जो भी शिक्षा पाई ,वह अपनी
> > मातृभाषा गुजराती मे पाई थी
> > . उस वक्त गणित , इतिहास और
> > भूगोल का थोडा -थोडा ग्यान
<स्पष्टता के लिए हटा दिया>
> > (आगे पढने मे ऋचि हो तो
> > बतायें )
> > अफ़लातून
ज़रूर, पर शायद यह मंच उसके
लिए उपयुक्त न हो।
विनय
सेवाग्राम,२७-१-'४२,हरिजनसेवक,१-२-'४२.
~~~~~~~~~~~~~~~~
जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर
-
पारिवारिक पृष्टभूमि के
कारण बचपन से
हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और
बांग्ला पढ ,बोल लेता
हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में
हूं.अनुवाद लेखों और भाषणों
का ,इनसे और अंग्रेजी से
करता
हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय
पृष्ट के लेख) और फ़ीचर
सेवाओं के जरिए भी लिखता
हूं.
१९७७ से १९८९ के
विश्वविद्यालयी जीवन में
काम काज की भाषा के तौर पर
हिन्दी के प्रयोग के लिए
आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी
हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की
काशी की पृश्टभूमि के कारण
इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती
थी.काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के किसी भी
विभाग मे हिन्दी में शोध
प्रबन्ध जमा किया जा सकता
है.१५ अगस्त २००६ से अब तक
चार देशों मे रह रहे मात्र
२३ लोगों को इंटरनेट पर
हिन्दी पढना और लिखना बताया.
और रुचि हो तो http://samatavadi.blogspot.com ,
http://samajwadi.blogspot.com ,http://samatavadi.wordpress.com
अथवा अंग्रेजी में aflatoon +samajwadi
खोजें.
दूसरे, आप दोनों ने
हिन्दी के लिए कितने
झंडे गाड़ दिए हैं जो
दूसरों पर उंगली उठा
रहे हैं? रंजीत बाऊ,
मुझे आपकी बात का
उत्तर देने की कोई
आवश्यकता नहीं है,
कुछ बोल दिया तो गश
खाकर गिर पड़ोगे,
क्योंकि दुनिया का
सीधा सा उसूल है,
दिमाग वाली बातें
उन्हीं को समझ नहीं
आती जो या तो मूर्ख
हैं या दिमाग का
प्रयोग नहीं करते।
शब्बाखैर
अगर पचास या सौ साल पहले की
बात न करते हुए वर्तमान में
भारत और चीन की तुलना करें
तो स्वभाषा में शिक्षा का
महत्व बिल्कुल स्पष्ट हो
जाता है| चीन में भारत की तरह
अँगरेज़ी की अंधेरगार्दी
नही है, लेकिन वह विज्ञान,
टेकनालोजी, राजनय, या किसी
अन्य मामले में भारत से आगे
ही है| कहने में बुरा तो लगता
है, ेपर सही है की अपने यहाँ
छापने वाले (रिसर्च) पेपर या
अन्य शोध प्रबंध कितने
मौलिक होते है और कितने में
कट- पेस्ट तकनीक का इस्तेमाल
होता है? इसमे अँगरेज़ी
शिक्षा का योगदान नहीं तो और
क्या है?
और जहां तक पनामा नहर(रट्टा
मारने) का सवाल है, अंगरेजी
के कारण इसको अधिक बढावा मिल
रहा है। इसका कारण यह है कि
छोटी कक्षाओं के बच्चे अभी
अंगरेजी सीख ही रहे होते
हैं, उन्हे अंगरेजी में कोई
विषय पढ़ाने का मतलब है विषय
की कठिनाई के साथ-साथ भाषा
की कठिनाई को भी उसमे
सम्मिलित कर लेना। ऐसे में
अच्छे शिक्षक होने के
बावजूद भी बच्चों के सामने
रटने के सिवा कोई दूसरा चारा
नहीं होता।
:)
रवि