हिन्दी पर महात्मा गांधी

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अफ़लातून

未读,
2006年9月14日 06:36:542006/9/14
收件人 Chithakar
मेरा यह विश्वास है कि
राष्ट्र के जो बालक अपनी
मातृभाषा के बजाय दूसरी
भाषा में शिक्षा प्राप्त
करते हैं , वे आत्महत्या ही
करते हैं . यह उन्हें अपने
जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित
करती है . विदेशी माध्यम से
बच्चों पर अनावश्यक जोर
पडता है . वह उनकी सारी
मौलिकता का नाश कर देता है .
विदेशी माध्यम से उनका
विकास रुक जाता है और अपने
घर और परिवार से अलग पड जाते
हैं . इसलिए मैं इस चीज को
पहले दरजे का राष्ट्रीय
संकट मानता हू . ( विथ गांधीजी
इन सीलोन , पृष्ट १०३ )

इस विदेशी भाषा के माध्यम
ने बच्चों के दिमाग को शिथिल
कर दिया है . उनके स्नायुओं
पर अनावश्यक जोर डाला है ,
उन्हें रट्टू और नकलची बना
दिया है तथा मौलिक कार्यों
और विचारों के लिए सर्वथा
अयोग्य बना दिया है . इसकी
वजह से वे अपनी शिक्षा का
सार अपने परिवार के लोगों
तथा आम जनता तक पहुंचाने में
असमर्थ हो गये हैं . विदेशी
माध्यम ने हमारे बालकों को
अपने ही घर में पूरा विदेशी
बना दिया है . यह वर्तमान
शिक्षा -प्रणाली का सब से
करुण पहलू है . विदेशी
माध्यम ने हमारी देशी
भाषाओं की प्रगति और विकास
को रोक दिया है . अगर मेरे
हाथों में तानाशाही सत्ता
हो , तो मैं आज से ही विदेशी
माध्यम के जरिये हमारे लडके
और लडकियों की शिक्षा बंद कर
दूं और सारे शिक्षकों और
प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम
तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें
बर्ख़ास्त करा दूं . मैं
पाठ्य पुस्तकों की तैयारी
का इन्तजार नहीं करूंगा . वे
तो माध्यम के परिवर्तन के
पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह
एक ऐसी बुराई है , जिसका
तुरन्त इलाज होना चाहिये .

( हिन्दी नवजीवन , २ - ९- ‘२१ )
https://samatavadi.wordpress.com/

अनुनाद

未读,
2006年9月14日 07:31:152006/9/14
收件人 Chithakar
गाँधीजी की बात आज के
परिप्रेक्ष्य में और अधिक
सत्य है| हिंदी और स्वदेशी
का सर्वाधिक हित गाँधीजी ने
किया; इनको सर्वाधिक
नुक़सान पहुँचाने का श्रेय
नेहरू को जाता है|

-----------------------------------

Amit

未读,
2006年9月14日 07:59:482006/9/14
收件人 Chit...@googlegroups.com

यदि वह जीवित होते तो
मैं उनसे पूछता अवश्य
कि महात्मन यह बताने
का कष्ट करें कि क्या
आपने भी आत्महत्या
की? क्या आप पर भी
अनावश्यक ज़ोर पड़ा और
क्या आपकी मौलिकता का
भी नाश हो गया? आपका
विकास रूक गया क्या?

और मैं ऐसा क्यों
पूछता? वह इसलिए कि
कदाचित्‌ महात्मा
भूल गए कि उन्होंने
उसी अंग्रेज़ी माध्यम
से शिक्षा प्राप्त की
जिसका वह विरोध कर
रहे थे। वे उच्च
शिक्षा प्राप्ति के
लिए इंग्लैड गए,
दक्षिण अफ़्रीका में
उसी अंग्रेज़ प्रशासन
के अंतर्गत वकालत
करने गए। वो तो उनको
जब अंग्रेज़ों ने लात
मारी तब उनका अहं
जागा और उन्हें ज्ञान
की प्राप्ति हुई!!!

मैं कोई अंग्रेज़ी
माध्यम की वकालत नहीं
कर रहा लेकिन इसका यह
अर्थ नहीं कि खामखां
किसी चीज़ को नीचा
दिखाया जाए। उनके समय
में हमारा लोकल
शिक्षा का ढाँचा इतना
पिछड़ा हुआ था कि बस
पूछो मत। समय के साथ
चलना है तथा औरों को
हराना है तो आपको
उनसे बढ़िया होना
होगा। देशभक्ति और ये
चीज़े अलग हैं। अपने
यहाँ से ही शिक्षा
ग्रहण करना देशभक्ति
का प्रमाण नहीं है।


cheers
Amit

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अफ़लातून

未读,
2006年9月15日 13:26:332006/9/15
收件人 Chithakar
अंग्रेजों से 'लात खाने' के
पहले के गांधी के अनुभव
-उन्ही के शब्दों में :
यहां मैं अपने कुछ अनुभव बता
दूं . १२ बरस की उम्र तक मैंने
जो भी शिक्षा पाई ,वह अपनी
मातृभाषा गुजराती मे पाई थी
. उस वक्त गणित , इतिहास और
भूगोल का थोडा -थोडा ग्यान
था . इसके बाद मैं एक हाई
स्कूल में दाखिल हुआ . उसमे
भी पहले तीन साल तक तो
मातृभाषा ही शिक्षा का
माध्यम रही .लेकिन
स्कूल-मास्टर का काम तो
विद्यार्थियों के दिमाग
मेम जबरदस्ती अंग्रेजी
ठूसना था .इसलिए हमारा आधे
से अधिक समय अंग्रेजी और
उसके मनमाने हिज्जों तथा
उच्चारण पर काबू पाने मेम
लगाया जाता था. ऐसी भाषा का
पढना हमारे लिए एक
कष्टपूर्ण अनुभव था ,जिसका
उच्चारण ठीक उसी तरह नही
होता जैसा कि वह लिखी जाती
है.हिज्जों को क्ण्ठस्थ
करना एक अजीब सा अनुभव
था.लेकिन यह तो मैं
प्रसन्गवश कह गया .वस्तुत:
मेरी दलील से इसका कोई समबंध
नहीं है . मगर पहले तीन साल तो
तुलनात्मक रूपमें ठीक निकल
गये.
ज़िल्लत तो चौथे साल से
शुरु हुई . अलजबरा
(बीजगणित),केमिस्ट्री
(रसायनशास्त्र),एस्ट्रॊनॊमी(ज्योतिष),हिस्ट्री(इतिहास),ज्यॊग्राफ़ी(भूगोल)
हर एक विषय मातृभाषा के बजाय
अंग्रेजी में ही पढना पडा .
अंग्रेजी का अत्याचार इतना
बडा था कि संस्कृत या फ़ारसी
भी मातृभाषा के बजाय
अंग्रेजी के ज़रिए सीखनी
पडती थी.कक्षा मे अगर कोई
विद्यार्थी गुजराती , जिसे
कि वह समझता था, बोलता तो उसे
सजा दी जाती थी.हां
,अंग्रेजी जिसे न तो वह पूरी
समझ सकता था और न शुद्ध बोल
सकता था,अगर वह बुरी तरह
बोलता तो भी शिक्षक को कोई
आपत्ति नही होती थी.शिक्षक
भला इस बात कि फ़िक्र क्यों
करे ?खुद उसकी ही अंग्रेजी
निर्दोष नहीं थी .इसके सिवा
और हो भी क्या सकता
था?क्योंकि अंग्रेजी उसके
लिए भी उसी तरह विदेशी भाषा
थी जिस तरह उसके
विद्यार्थियों के लिए
थी.इससे बडी गडबड होती.हम
विद्यार्थियों को अनेक
बातें कंठस्थ करनी होती
,हांलाकि हम उन्हें पूरी तरह
समझ सकते थे.शिक्षक के
हमेंज्यॊमेट्री (रेखागणित)
समझाने की भरपूर कोशिश के
करने पर मेरा सिर घूमने
लगता.सच तो यह है कि यूक्लिड
की फली पुस्तक के १३वें
साध्य तक जब तक हम न पहुंच
गये,मेरी समझ मे ज्यॊमेट्री
बिलकुल नहीम आयी.और पाठकों
के सामने मुझे यह मंजूर करना
ही चाहिये कि मातृभाषा के
अपने सारे प्रेम के बावजूद
आज भी मैं यह नहीं जानताकि
ज्यॊमेट्री,अलजबरा आदि की
पारिभाशिक बातों को
गुजराती मे क्या खते
हैं.हां,यह अब मैं जरूर
देखता हूं कि जितना गणित
,रेखागणित,बीजगणित,रसायनशास्त्र
और ज्योतिष सीखने मुझे चार
साल लगे,अगर अंग्रेजी के
बजाय गुजराती मे मैंने उसे
पढा होता तो उतना मैं ने एक
ही साल मे आसानी से सीख लिया
होता.उस हालत मे मैं आसानी
और स्पष्टता के साथ इन
विषयों को समझ लेता.गुजराती
का मेरा शब्दग्यान कहीं
समृद्ध हो गया होता,और उस
ग्यान का मैने अपने घर में
उपयोग किया होता.लेकिन इस
अंग्रेजी के माध्यम ने तो
मेरे और कुटुंबियों के
बीच,को कि अंग्रेजी स्कूलों
मे नही पढे थे, एक अगम्य खाई
खदी कर दी.मेरे पिता को कुछ
पता न था कि मै क्या कर रहा
हूं . मैं चाहता तो भी अपने
पिताकी इस बात मेम दिलचस्पी
पैदा नही कर सकता था कि मैं
क्या पढ रहा हूं.क्योंकि
यद्यपि बुद्धिकी उनमे कोई
कमी न थी, मगर वह अंग्रेजी
नही जानते थे.इस प्रकार अपने
ही घर मे मैं बडी त्जी के साथ
अजनबी बनता जा रहा था.निश्चय
ही मैं औरोंसे ऊंचा आदमी बन
गया था.यहां तक कि मरी पोशाक
भी अपने-आप बदलने लगी .लेकिन
मेरा जो हाल हुआ वह कोई
असाधारन अनुभव नहीथा,बल्कि
अधिकांश का यही हाल होता है.
(आगे पढने मे ऋचि हो तो
बतायें )

Pankaj Narula

未读,
2006年9月15日 15:53:042006/9/15
收件人 Chit...@googlegroups.com
अफलातून भाई जी

मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।

आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा  लगा लिया  था।  अभी  कुछ समय पहले  एक पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर  से आया। उत्सुकता हूई व विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।

यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने बोलने को मिलती थी।

अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों  का कुछ किया नहीं जा सकता।

पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।
--
Pankaj Narula
http://pnarula.com | Beta Thoughts
http://ms.pnarula.com | Mirchiseth

जीतू | Jitu

未读,
2006年9月15日 16:02:452006/9/15
收件人 Chit...@googlegroups.com
मेरे काफ़ी विचार तो पंकज भाई ने कह दिए है।
आइए अब बात करते है, हिन्दी बोलने के ऊपर की :

हिन्दी की दुर्दशा पर तो हर कोई रो लेता है, लेकिन अफलातून भाई (निजी तौर पर मत लीजिएगा, सभी पर लागू है), अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए, आपने हिन्दी को आगे बढाने के लिये क्या किया?

हम लोग इन्टरनैट के प्राणी है इसीलिए, हिन्दी को इन्टरनैट पर ज्यादा से ज्यादा देखना चाहते है। उसी के लिये सतत प्रयत्नशील है। मुझे आपके बारे मे नही पता कि आप किस पेशे से जुड़े हुए है, लेकिन जिस भी पेशे से जुड़े हुए हों हम अपनी राष्ट्रभाषा को सम्मान देते रहे और उसके प्रचार प्रसार के लिये प्रयत्नशील रहें। यही हमारी हिन्दी के प्रति सच्चा प्यार होगा।

आइए अब थोड़ा विज्ञापन भी कर दूं, मै हिन्दी क्यों बोलता हूँ,  यहाँ देखिए
--
------------------------------------------------------------------------------------------------------
Jitendra Chaudhary
Email : jitu...@gmail.com Web:http://www.jituonline.com
blog: http://www.jitu.info/merapanna
Photoblog: http://www.jitu.info/darpan
------------------------------------------------------------------------------------------------------

rajit...@gmail.com

未读,
2006年9月15日 17:04:012006/9/15
收件人 Chithakar
हां तो अमित भिया तुमने
अफ़लातून भाई का जवाब तो पढ़
ही लिया होगा और गांधी जी के
बारे में तुम्हारी जानकारी
भी अद्यतन हो चुकी होगी... अब
जरा अपने बारे में भी
ज़ानकारी अद्यतन कराओ तो ... 2
मुद्दे की बातें कही है
तुमने!!! पहली ,समय के साथ
चलना और दूसरी, औरो को
हराना... चलो पहले दूसरी से
निपटते हैं. हां तो यह बताने
का कष्ट करोगे कि अभी तक
कितने लोगो को हरा चुके हो
इस विदेशी भाषा को सीख कर ?????
बिल्कुल नाम बता सकते हो यदि
संख्या ज्यादा हो और नाम याद
न हो तो गिनती कर के बता
देना... हां पर साथ में यह भी
बताना कि अब तक कितनो से हार
चुके हो अंग्रेजी जानने के
बावजूद भी.... और उतनी ही
सच्चाई से बताना... ठीक... भैया
हार और जीत केवल बच्चों का
शगल है या फिर अमेरिका का. ;)
चलो अब पहली मुद्दे की बात
पे आते है. समय के साथ चलना....
इस समय के साथ चलने के
मापद्ण्ड और मायने क्या है ???
किसी के आचरण का
उद्द्ण्ड्तापूर्ण अनुकरण
या उन्ही के चीज़ों या
क़ृतियों का विवश समरूपण? ??
बताओगे ????? समय के साथ चलने
का मतलब होता है व्यष्टि व
समष्टि दोनो का अपनी
सम्पूर्ण् समग्रता*** के साथ
अपनी समस्त सम्भावनाओं का
निर्धारण ? वह भी पूरी
समझदारी से.... ( यह बात अभी
तुम्हारी समझ मे नही आने
की...)
इसे उस घोड़े से समझो जो किसी
रथ या तांगे मे जुता होने पर
भी उसी रथ से आगे निकलने की
कोशिश करता हैं ... और इस
उम्मीद मे और ज्यादा तेज
दोडता है कि वह इसे हरा भी
देगा... वो बेचारा तो अक्क्ल
मे कमजोर है ... पर अपन .... :))
हां और अभी तो मुझे बैलगाड़ी
के नीचे चलने वाला वो कुत्ता
भी नजर आ रहा है जो धूप से
बचने के लिये बैलगाड़ी के
नीचे चलता है पर बीच मे उसे
यह मुगालता( गलत फहमी) हो
जाता
है कि वोही बैलगाड़ी को खींच
भी रहा है और हांक भी रहा है...
:))
कहना तो बहुत कुछ था पर अब
समय हो गया है ....
हां!!!! तुम व तुम्हारी जैसी
मानसिकता वाले किसी भी
व्यक्ति के जवाब का इंतज़ार
रहेगा, भले ही अनिच्छा से
ही... पर रहेगा जरूर.....

Vinay

未读,
2006年9月15日 19:23:312006/9/15
收件人 Chithakar
(इस समूह के लिए यह चर्चा
शायद विषयांतर है।
मध्यस्थों से निवेदन कि अगर
ऐसा लगे तो बता दें। पेशगी
माफ़ी।)

Pankaj Narula wrote:
> अफलातून भाई जी
>
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा
> लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
>
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय
> गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना
> था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष
> आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी
> माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय
> कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक
> पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व
> विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह
> चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर
> अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
>

पंकज, मेरा थोड़ा मतभेद है।
आपके स्वेज़ और पनामा के बारे
में न जानने का भाषा से कोई
लेना-देना नहीं। वह तो हमारी
शिक्षा-पद्धति की कमज़ोरी है
जो विचारों को समझने की बजाय
रट्टाबाज़ी पर केन्द्रित
है। आप अँगरेज़ी में पढ़ रहे
होते तो भी वही हाल होता।

भाषाविद इस बारे में एकमत
हैं कि ज्ञान अर्जन की भाषा
वही होनी चाहिये जो बच्चे की
अपनी भाषा हो। अपनी भाषा
यानि अपने परिवेश में
बोल-सुनकर या प्राकृतिक रूप
से सीखी हुई भाषा। ऐसी एक से
ज़्यादा भाषाएँ भी हो सकती
हैं। बल्कि भारत में एक से
ज़्यादा भाषाएँ बोलते बोलते
बड़े होना आम है। पर मुझे
नहीं लगता कि भारत में बहुत
सारे परिवेश ऐसे होंगे जहाँ
बच्चे अँगरेज़ी बोलते-सुनते
बड़े होते हों, शहरों को मिला
लें तो भी। अँगरेज़ी अभी भी
ज़्यादातर लिखने-पढ़ने का
साधन है। इसमें आम बोल-चाल
तो बमुश्किल ५-६% लोगों तक
सीमित होगी। हो सकता है मैं
ग़लत होऊँ, पर मेरा कहना यह है
कि अगर आप अँगरेज़ी बोल-चाल
वाले परिवेश में बड़े नहीं
हुए तो आपकी प्रारम्भिक
शिक्षा अँगरेज़ी में नहीं
होनी चाहिये। या घुमा कर
कहें तो, यदि आपके आस-पास,
मिसाल के तौर पर, हिंदी और
पंजाबी बोली जाती है तो आपकी
प्रारम्भिक शिक्षा की
निर्देश भाषा इन दोनों में
से कोई एक होनी चाहिए।
अँगरेज़ी का एक विषय होना अलग
बात है। उसकी ज़रूरत से मैं
इंकार नहीं करता।

ज्ञान के लिए भाषा एक माध्यम
ज़रूर है, पर इस माध्यम का सही
होना बहुत ज़रूरी है। गाँधी
जी ने जो बात कही (और मैं
अफ़लातून जी का शुक्रिया अदा
करता चलूँ उसे पोस्ट करने के
लिए), वह भले ही उन्होंने
अपने अनुभवों से कही हो,
उसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध
हो चुका है।

http://www.ieq.org/pdf/insidestory2.pdf#search=%22learning%20in%20mother%20tongue%22
http://www.iteachilearn.com/cummins/mother.htm

> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी
> भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं
> कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक
> बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब
> स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात
> करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से
> स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की
> असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत
> में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार
> भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल
> वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने
> बोलने को मिलती थी।

भाषाविद मानते हैं कि
शुरूआती वर्षों में बच्चे
एक से अधिक भाषाएँ तक आराम
से सीख सकते हैं। बाद में
यही बहुत मुश्किल और असहज
होता है, और वैसी रवानगी भी
नहीं आती। ऐसा सिर्फ़ दक्षिण
भारत में नहीं, भारत के लगभग
हर प्रांत में है। राजस्थान
के लोग मारवाड़ी और हिंदी बोल
लेते हैं और समझने को
पंजाबी, हरयाणवी और गुजराती
तक समझ लेते हैं। और आप
जानते ही होंगे कि पंजाब में
भी अधिकतर लोग भी
हिंदी-उर्दू आराम से
समझते-बोलते हैं। अमरीका तो
फिर भी अधिकांशतया एकभाषी
देश है। भारत में तो कहावत
के अनुसार हर ९ कोस में
बोलियाँ बदलती हैं। इसलिये
जहाँ अमेरिका जैसे देश में
बहुभाषी होना अपवाद है, वहीं
भारत में यह लगभग नियम है।

>
> अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के
> लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि
> अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों
> में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे
> जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ
> किया नहीं जा सकता।
>
> पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में
> व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव
> कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं
> क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं
> जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य
> कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।
>

बिल्कुल सहमत हूँ। काम में
आने वाली भाषाएँ सीखना न तो
नई बात है और न ही बुरी। पर
मेरे ख़याल में यह मुद्दा
इससे बिल्कुल अलग है कि आपकी
शिक्षा की निर्देश भाषा कौन
सी हो।

> On 9/15/06, अफ़लातून <afla...@gmail.com> wrote:
> >
> > अंग्रेजों से 'लात खाने' के
> > पहले के गांधी के अनुभव
> > -उन्ही के शब्दों में :
> > यहां मैं अपने कुछ अनुभव बता
> > दूं . १२ बरस की उम्र तक मैंने
> > जो भी शिक्षा पाई ,वह अपनी
> > मातृभाषा गुजराती मे पाई थी
> > . उस वक्त गणित , इतिहास और
> > भूगोल का थोडा -थोडा ग्यान

<स्पष्टता के लिए हटा दिया>

> > (आगे पढने मे ऋचि हो तो
> > बतायें )

> > अफ़लातून

ज़रूर, पर शायद यह मंच उसके
लिए उपयुक्त न हो।

विनय

Pankaj Narula

未读,
2006年9月16日 01:56:312006/9/16
收件人 Chit...@googlegroups.com
विनय जी

आप की बात तर्कसंगत है। इतने स्नेह व प्रेम से समझाने के लिए शु्क्रिया।

पंकज

अफ़लातून

未读,
2006年9月16日 04:48:532006/9/16
收件人 Chithakar
अनुनाद जी,
विकास की अवधारणा के बारे
में नेहरू और गांधी में जो
बुनियादी दृष्टि-भेद था
उसके बारे में अलग चर्चा
होनी चहिये .गांधी चाहते थे
कि देश के विकास की बाबत इन
दोनों के बीच जो अन्तर है
उसे जनता जाने लेकिन
दुर्भाग्य से कम ही लोगों के
समक्ष वह पत्राचार
प्रसारित हुआ.गांधी के
दूसरे सचिव श्री प्यारेलाल
की प्रसिद्ध किताब ,
'महात्मा गांधी :पूर्णाहुति'
मे इसकी विषद चर्चा है.
समूह के साथियों को यदि
रुचि हो तो उस पत्राचार को
भी प्रस्तुत किया जा सकता है.

अफ़लातून

未读,
2006年9月16日 05:22:342006/9/16
收件人 Chithakar
भाई अमित,
गांधी के बचपन के अनुभव १५
तारीख की प्रविष्टि में
देने की कोशिश है.उस
प्रविष्टि का स्रोत छूट गया
था.'हरिजनसेवक',दि. ९
जुलाई,१९३८.भाषा को नीचा
दिखाने का प्रश्न नहीं
है.शासन और शोषण की भाषा का
विरोध होना चहिये.
'समय के साथ चलने ' आदि
दलीलों की बाबत फिर गांधी का
सहारा ले रहा हूं.अंग्रेजी
साहित्य की बाबत
द्वेष्रहित भाव भी गौरतलब
है.---
"अंग्रेजी आन्तर-राष्ट्रीय
व्यापार की भाषा है ,वह
कूट्नीति की भाषा है .उसका
साहित्यिक भंडार बहुत
समृद्ध है और वह पश्चिमी और
संस्कृति से हमारा परिचय
कराती है.इसलिए हम में से
कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी
भाषा का ग्यान आवश्यक है.वे
लोग राष्ट्रीय व्यापार और
आन्तर -राष्ट्रीय कूट्नीति
के विभाग तथा हमारे राष्ट्र
को पश्चिमी साहित्य,विचार
और विग्यान की उत्तम
वस्तुएं देने वाला विभाग
चला सकते हैं.वह अंग्रेजी का
उचित उपयोग होगा,जब्कि आज
अंग्रेजीने हमारे हृदयों
में प्रिय से प्रिय स्थान
हडप लिया है और हमारी
मातृभाषाओं को अपने अधिकार
के स्थान से हटा दिया
है.अंग्रेजी को जो यह
अस्वाभाविक स्थान मिल गया
है,उसका कारण है अंग्रेजों
के साथ हमारे असमान सम्बन्ध
. अंग्रेजी के ग्यान के बिना
भी भारतीयों के दिमाग का
ऊंचे से ऊंचा विकास होना
चाहिये . हमारे लडकों और
लडकियों को यह सोचने के लिए
प्रोत्साहित करना कि
अंग्रेजी के ग्यान के बिना
उत्तम समाज में प्रवेश नहीं
मिल सकता,भारत के पुरुषत्व
और खास करके स्त्रीत्वकी
हिन्सा करना है.यह इतना
अपमानजनक विचार है,जो
सहन्नहीं किया जा
सकता.अंग्रेजी के मोह से
छूटना स्वराज्य का एक
आवस्स्श्यक और अनिवार्य
तत्व है.
यंग इंडिया,२.२.'२१

अफ़लातून

未读,
2006年9月16日 10:29:512006/9/16
收件人 Chithakar
राजीतजी ने अमित को उत्तर
दिया है और जीतूजी मेरे बारे
में कुछ जानने की उत्सुकता
जता रहे हैं.उनके बारे में
तो मित्र अनूप ने उनके ब्लॊग
की सालगिरह पर कुछ खट्टा,कुछ
मीठा लिख ही दिया है,अनूप के
सुपुत्र को ब्लॊग की
सालगिरह पर फोन पर तकादे के
बाद.
अभी 'समय के साथ चलने वाली'
अमित की बात न छूटे इसलिए
सर्वप्रथम पुन:
राष्ट्रपिता के सहारे :
--"रूस ने बिना अंग्रेजी के
विग्यान में इतनी उन्नति कर
ली है.आज हम अपनी मानसिक
गुलामीकी वजह से ही यह मानने
लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना
हमारा काम नही चल सकता . मैं
काम शुरु करने के पहले ही
हार मान लेने की इस
निराशापूर्ण वृत्ति को कभी
स्वीकार नहीं कर
सकता."(हरिजनसेवक,२५अगस्त,१९४६)
-----"जापान की कुछ बातें सचमुच
हमारे लिए अनुकरणीय हैं.
जापान के लडकों और लडकियों
ने यूरोप से जो कुछ पाया
है,अपनी मातृभाषा जापानी के
जरिए ही पाया है,अंग्रेजी के
ज़रिए नहीं.जापानी लिपि बडी
कठिन है,फिर भी जापानियों ने
रोमन लिपि को कभी नही
अपनाया.उनकी सारी तालीम
जापानी लिपि और जापानी भाषा
के ज़रिए ही होती है.जो चुने
हुए जापानी पश्चिमी देशों
से खास प्रकार की शिक्षा के
लिए भेजे जाते हैं,वे भी जब
आवश्यक ग्यान पा कर लौटते
हैं,तो अपना सारा ग्यान अपने
देशवासियों को जापानी भाषा
के ज़रिए ही देते हैं.अगर वे
ऐसा न करते और देश में आकर
दूसरे देशों के जैसे स्कूल
और कॊलेज अपने यहां भी बना
लेते,और अपनी भाषा को
तिलांजलि दे कर अंग्रेजी
में सब कुछ पढाने लगते,तो
उससे बढ कर बेवकूफ़ी और क्या
होती? इस तरीके से जापानवाले
नई भाषा तो सीखते,लेकिन नया
ग्यान न सीख
पाते."(हरिजनसेवक,१फ़रवरी,१९४२)
"जापानियों ने इतनी तेजी से
तरक्की की,इसका कारण यह है
कि उन्होंने अपने देशमें
पश्चिमी ढंग की शिक्षा को
कुछ चुने हुए लोगों तक ही
सीमित रखा और उनके द्वारा
जापानियों में पश्चिम के नए
ग्यान का प्रचार जापानी
भाषा के जरिए ही करवाया.यह
तो हर कोई आसानी से समझ सकता
है कि अगर जापानवाले किसी
विदेशी भाषा के ज़रिए यह सारा
काम करते,तो वे पश्चिम के नए
तरीकों को कभी न अपना पाते."

सेवाग्राम,२७-१-'४२,हरिजनसेवक,१-२-'४२.

~~~~~~~~~~~~~~~~
जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर
-
पारिवारिक पृष्टभूमि के
कारण बचपन से
हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और
बांग्ला पढ ,बोल लेता
हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में
हूं.अनुवाद लेखों और भाषणों
का ,इनसे और अंग्रेजी से
करता
हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय
पृष्ट के लेख) और फ़ीचर
सेवाओं के जरिए भी लिखता
हूं.
१९७७ से १९८९ के
विश्वविद्यालयी जीवन में
काम काज की भाषा के तौर पर
हिन्दी के प्रयोग के लिए
आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी
हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की
काशी की पृश्टभूमि के कारण
इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती
थी.काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय के किसी भी
विभाग मे हिन्दी में शोध
प्रबन्ध जमा किया जा सकता
है.१५ अगस्त २००६ से अब तक
चार देशों मे रह रहे मात्र
२३ लोगों को इंटरनेट पर
हिन्दी पढना और लिखना बताया.
और रुचि हो तो http://samatavadi.blogspot.com ,
http://samajwadi.blogspot.com ,http://samatavadi.wordpress.com
अथवा अंग्रेजी में aflatoon +samajwadi
खोजें.

Amit

未读,
2006年9月16日 14:25:042006/9/16
收件人 Chit...@googlegroups.com

यह मेरी इस थ्रेड में
आखिरी ईमेल है, इसके
बाद मैं इस विषय पर
कोई ईमेल नहीं
करूँगा। अफ़लातून और
रंजीत, दूसरों को भला
बुरा बोलने से पहले
ये देखो कि अंग्रेज़ी
भक्ती का आरोप किस पर
लगा रहे हो। यहाँ पर
सभी हिन्दी में लिखते
हैं, यदि अंग्रेज़ी
भक्त होते तो हिन्दी
में नहीं लिखते
जिसमें कंप्यूटर पर
लिखना आज भी अंग्रेज़ी
लिखने के मुकाबले
अधिक कठिन है।

दूसरे, आप दोनों ने
हिन्दी के लिए कितने
झंडे गाड़ दिए हैं जो
दूसरों पर उंगली उठा
रहे हैं? रंजीत बाऊ,
मुझे आपकी बात का
उत्तर देने की कोई
आवश्यकता नहीं है,
कुछ बोल दिया तो गश
खाकर गिर पड़ोगे,
क्योंकि दुनिया का
सीधा सा उसूल है,
दिमाग वाली बातें
उन्हीं को समझ नहीं
आती जो या तो मूर्ख
हैं या दिमाग का
प्रयोग नहीं करते।

शब्बाखैर

अनुनाद

未读,
2006年9月16日 18:20:332006/9/16
收件人 Chithakar
भाई लोग, कुछ भी कहिय, लेकिन
यह चर्चा मुझे तो काफ़ी
सार्थक लगी|

अगर पचास या सौ साल पहले की
बात न करते हुए वर्तमान में
भारत और चीन की तुलना करें
तो स्वभाषा में शिक्षा का
महत्व बिल्कुल स्पष्ट हो
जाता है| चीन में भारत की तरह
अँगरेज़ी की अंधेरगार्दी
नही है, लेकिन वह विज्ञान,
टेकनालोजी, राजनय, या किसी
अन्य मामले में भारत से आगे
ही है| कहने में बुरा तो लगता
है, ेपर सही है की अपने यहाँ
छापने वाले (रिसर्च) पेपर या
अन्य शोध प्रबंध कितने
मौलिक होते है और कितने में
कट- पेस्ट तकनीक का इस्तेमाल
होता है? इसमे अँगरेज़ी
शिक्षा का योगदान नहीं तो और
क्या है?

और जहां तक पनामा नहर(रट्टा
मारने) का सवाल है, अंगरेजी
के कारण इसको अधिक बढावा मिल
रहा है। इसका कारण यह है कि
छोटी कक्षाओं के बच्चे अभी
अंगरेजी सीख ही रहे होते
हैं, उन्हे अंगरेजी में कोई
विषय पढ़ाने का मतलब है विषय
की कठिनाई के साथ-साथ भाषा
की कठिनाई को भी उसमे
सम्मिलित कर लेना। ऐसे में
अच्छे शिक्षक होने के
बावजूद भी बच्चों के सामने
रटने के सिवा कोई दूसरा चारा
नहीं होता।

Ravishankar Shrivastava

未读,
2006年9月17日 00:50:572006/9/17
收件人 Chit...@googlegroups.com

:)
रवि

जीतू | Jitu

未读,
2006年9月17日 00:54:042006/9/17
收件人 Chit...@googlegroups.com
साथियों,
चर्चा गम्भीर होती जा रही है,
आइए परिचर्चा पर इसे आगे बढाएं, यहाँ सिर्फ़ ६ या ७ लोग ही चर्चा कर रहे है, इसलिए चिट्ठाकार फोरम इसके लिए मुफ़ीद जगह नही। इस चर्चा का अगला थ्रेड परिचर्चा पर ही खोलिए, यहाँ मत करिए। धन्यवाद।
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